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यदश्व॑स्य क्र॒विषो॒ मक्षि॒काश॒ यद्वा॒ स्वरौ॒ स्वधि॑तौ रि॒प्तमस्ति॑। यद्धस्त॑योः शमि॒तुर्यन्न॒खेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ऽअपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अश्व॑स्य। क्र॒विषः॑। मक्षि॑का। आश॑। यत्। वा॒। स्वरौ॑। स्वधि॑ता॒विति॒ स्वऽधि॑तौ। रि॒प्तम्। अस्ति॑। यत्। हस्त॑योः। श॒मि॒तुः। यत्। न॒खेषु॑। सर्वा॑। ता। ते॒। अपि॑। दे॒वेषु॑। अ॒स्तु॒ ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे कौन रक्षा करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (मक्षिका) मक्खी (क्रविषः) चलते हुए (अश्वस्य) शीघ्र जानेवाले घोड़े का (आश) भोजन करती अर्थात् कुछ मल-रुधिर आदि खाती (वा) अथवा (यत्) जो (स्वरौ) स्वर (स्वधितौ) वज्र के समान वर्त्तमान हैं वा (शमितुः) यज्ञ करने हारे के (हस्तयोः) हाथों में (यत्) जो वस्तु (रिप्तम्) प्राप्त और (यत्) जो (नखेषु) नखों में प्राप्त (अस्ति) है (ता) वे (सर्वा) सब पदार्थ (ते) तुम्हारे हों तथा यह समस्त व्यवहार (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी (अस्तु) होवे ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ऐसी घुड़शाल में घोड़े बाँधने चाहियें, जहाँ इनका रुधिर आदि माँछि आदि न पीवें। जैसे यज्ञ करने हारे के हाथ में लिपटे हुए हवि को धोने आदि से छुड़ाते हैं, वैसे ही घोड़े आदि पशुओं के शरीर में लिपटी धूलि आदि को नित्य छुड़ावें ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कथं के रक्ष्या इत्याह ॥

अन्वय:

(यत्) या (अश्वस्य) आशुगामिनः (क्रविषः) गन्तुः (मक्षिका) (आश) अश्नाति (यत्) यौ (वा) (स्वरौ) (स्वधितौ) वज्रवद्वर्त्तमानौ (रिप्तम्) प्राप्तम् (अस्ति) (यत्) (हस्तयोः) (शमितुः) यज्ञस्य कर्त्तुः (यत्) (नखेषु) (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (अपि) (देवेषु) विद्वत्सु (अस्तु) ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यद्या मक्षिका क्रविषोऽश्वस्याऽऽश वा यत्स्वरौ स्वधितौ स्तः, शमितुर्हस्तयोर्यद्रिप्तं यच्च नखेषु रिप्तमस्ति ता सर्वा ते सन्तु। एतत्सर्वं देवेष्वप्यस्तु ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरीदृशायां शालायामश्वा बन्धनीया, यत्रैषां रुधिरादिकं मक्षिकादयो न पिबेयुः। यथा यज्ञकर्त्तुर्हस्तयोर्लिप्तं हविः प्रक्षालनादिना निवारयन्ति, तथैवाश्वादीनां शरीरे लिप्तानि धूल्यादीनि नित्यं निवारयन्तु ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अशा अश्वशाळेत घोडे बांधले पाहिजेत की, जेथे त्यांचे रक्त माशा वगैरेंनी पिऊ नये. याज्ञिक जसे आपली हवी (यज्ञात टाकण्याचे पदार्थ) स्वच्छ करतात तसे घोडे इत्यादी पशूंच्या शरीरावरील धूळ झटकावी.