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श॒तमिन्नु श॒रदो॒ऽअन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्। पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑ ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒तम्। इत्। नु। श॒रदः॑। अन्ति॑। दे॒वाः॒। यत्र॑। नः॒। च॒क्र। ज॒रस॑म्। त॒नूना॑म्। पु॒त्रासः॑। यत्र॑। पि॒तरः॑। भव॑न्ति। मा। नः॒। म॒ध्या। री॒रि॒ष॒त॒। रि॒रि॒ष॒तेति॑ रिरिषत। आयुः॑। गन्तोः॑ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर हमारे लिये कौन क्या करें? इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वानो ! आप के (अन्ति) समीप स्थित (नः) हम लोगों के (यत्र) जिस व्यवहार में (तनूनाम्) शरीरों की (जरसम्) वृद्धावस्था और (शतम्) सौ (शरदः) वर्ष पूरे हों, उस व्यवहार को (नु) शीघ्र (चक्र) करो (यत्र) जहाँ (पुत्रासः) बुढ़ापे के दुःखों से रक्षा करनेवाले लड़के (इत्) ही (पितरः) पिता के समान वर्त्तमान (भवन्ति) होते हैं, उस (नः) हम लोगों की (गन्तोः) चाल और (आयुः) अवस्था को (मध्या) पूरी अवस्था भोगने के बीच (मा, रीरिषत) मत नष्ट करो ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सदा दीर्घ काल अर्थात् अड़तालीस वर्ष प्रमाणे ब्रह्मचर्य सेवना चाहिये। जिससे पिता आदि के विद्यमान होते ही लड़के भी पिता हो जावें अर्थात् उनके भी लड़के हो जावें और जब सौ वर्ष आयु बीते तभी शरीरों की वृद्धावस्था होवे। जो ब्रह्मचर्य के साथ कम से कम पच्चीस वर्ष व्यतीत होवें, उससे पीछे भी अतिमैथुन करके जो लोग वीर्य का नाश करते हैं तो वे रोगसहित निर्बुद्धि होके अधिक अवस्थावाले कभी नहीं होते ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरस्मदर्थं के किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(शतम्) शतवार्षिकम् (इत्) एव (नु) सद्यः (शरदः) शरदृत्वन्तानि (अन्ति) अन्तिके (देवाः) विद्वांसः (यत्र) यस्मिन्। अत्र निपातस्य च [अ०६.३.१३६] इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (चक्र) कुर्वन्तु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (जरसम्) जराः (तनूनाम्) शरीराणाम् (पुत्रासः) वृद्धावस्थाजन्यदुःखात्त्रातारः (यत्र) (पितरः) पितर इव वर्त्तमानाः (भवन्ति) (मा) (नः) अस्माकम् (मध्या) पूर्णायुषो भोगस्य मध्ये (रीरिषत) घ्नत (आयुः) जीवनम् (गन्तोः) गमनम् ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवा ! भवदन्ति स्थितानां नोऽस्माकं यत्र तनूनां जरसं शतं शरदः स्युस्तन्नु चक्र। यत्र पुत्रास इत्पितरो भवन्ति तन्नो गन्तोरायुर्मध्या मा रीरिषत ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्दीर्घमष्टचत्वारिंशद्वर्षपरिमितं ब्रह्मचर्यं सदा सेवनीयम्। येन पितृषु विद्यमानेषु पुत्रा अपि पितरो भवेयुः। यदा शतवार्षिकमायुर्व्यतीयात्तदैव शरीराणां जराऽवस्था भवेत्। यदि ब्रह्मचर्येण सह न्यूनान्न्यूनानि पञ्चविंशतिर्वर्षाणि व्यतीतानि स्युस्ततः पश्चादप्यतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति, तर्हि ते सरोगा निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुषः कदापि न भवन्ति ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी दीर्घकाळ म्हणजे अट्टेचाळीस वर्षे ब्रह्मचर्य पाळावे. ज्यामुळे पिता इत्यादी जिवंत असेपर्यंत पुत्र ही पिता बनावा. अर्थात् त्यांनाही मुले व्हावीत. शंभर वर्षे वय झाल्यास वृद्धावस्था समजावी. जे कमीत कमी पंचवीस वर्षे ब्रह्मचर्य पाळतात व नंतरही अतिमैथुन करून वीर्याचा नाश करतात ते रोगी आणि निर्बुद्ध बनतात व अधिक काळ जगू शकत नाहीत.