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स्व॒स्ति न॒ऽइन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः। स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ऽअरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒स्ति। नः॒। इन्द्रः॑। वृ॒द्धश्र॑वा॒ इति॑ वृ॒द्धऽश्र॑वाः। स्व॒स्ति। नः॒। पू॒षा। वि॒श्ववेदा॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दाः। स्व॒स्ति। नः॒। तार्क्ष्यः॑। अरि॑ष्टनेमि॒रित्यरि॑ष्टऽनेमिः। स्व॒स्ति। नः॒। बृह॒स्पतिः॑। द॒धा॒तु॒ ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (वृद्धश्रवाः) बहुत सुननेवाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख जो (विश्ववेदाः) समस्त जगत् में वेद ही जिस का धन है, वह (पूषा) सब का पुष्टि करनेवाला (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख जो (तार्क्ष्यः) घोड़े के समान (अरिष्टनेमिः) सुखों की प्राप्ति कराता हुआ (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख तथा जो (बृहस्पतिः) महत्तत्त्व आदि का स्वामी वा पालना करनेवाला परमेश्वर (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख को (दधातु) धारण करे, वह तुम्हारे लिये भी सुख को धारण करे ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अपने सुख को चाहें, वैसे और के लिये भी चाहें, जैसे कोई भी अपने लिये दुःख नहीं चाहता, वैसे और के लिये भी न चाहें ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानीश्वरः (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः श्रवणं यस्य सः (स्वस्ति) (नः) (पूषा) सर्वतः पोषकः (विश्ववेदाः) विश्वं सर्वं जगद्वेदो धनं यस्य सः (स्वस्ति) (नः) (तार्क्ष्यः) अश्व इव। तार्क्ष्य इत्यश्वनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१४) (अरिष्टनेमिः) योऽरिष्टानि सुखानि प्रापयति सः। अत्रारिष्टोपपदाण्णीञ् प्रापणे धातोरौणादिको मिः प्रत्ययः। (स्वस्ति) (नः) (बृहस्पतिः) बृहतां महत्तत्त्वादीनां स्वामी पालकः (दधातु) ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो वृद्धश्रवा इन्द्रो नः स्वस्ति, यो विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति, यस्तार्क्ष्य इवारिष्टनेमिः सन्नः स्वस्ति, यो बृहस्पतिर्नः स्वस्ति दधातु, स युष्मभ्यमपि सुखं दधातु ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथा स्वार्थे सुखमेष्टव्यं तथाऽन्यार्थमप्येषितव्यं यथा कश्चिदपि स्वार्थे दुःखं नेच्छति तथा परार्थमपि नैषितव्यम् ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे जशी स्वतः सुखाची इच्छा करतात तशीच दुसऱ्यासाठीही करावी. जसे स्वतःला दुःख नकोसे वाटते तसे इतरांनाही नकोसे वाटते हे लक्षात घ्यावे.