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तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियञ्जि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्। पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द् वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑ ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। ईशा॑नम्। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। पति॑म्। धि॒यं॒जि॒न्वमिति॑ धियम्ऽजि॒न्वम्। अव॑से। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। पू॒षा। नः॒। यथा॑। वेद॑साम्। अस॑त्। वृ॒धे। र॒क्षि॒ता॒। पा॒युः। अद॑ब्धः। स्व॒स्तये॑ ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर कैसा है, और किसलिये उपासना के योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (वयम्) हम लोग (अवसे) रक्षा आदि के लिये (जगतः) चर और (तस्थुषः) अचर जगत् के (पतिम्) रक्षक (धियञ्जिन्वम्) बुद्धि को तृप्त प्रसन्न वा शुद्ध करनेवाले (तम्) उस अखण्ड (ईशानम्) सब को वश में रखनेवाले सब के स्वामी परमात्मा की (हूमहे) स्तुति करते हैं, वह (यथा) जैसे (नः) हमारे (वेदसाम्) धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (पूषा) पुष्टिकर्त्ता तथा (रक्षिता) रक्षा करने हारा (स्वस्तये) सुख के लिये (पायुः) सब का रक्षक (अदब्धः) नहीं मारनेवाला (असत्) होवे, वैसे तुम लोग भी उस की स्तुति करो और वह तुम्हारे लिये भी रक्षा आदि का करनेवाला होवे ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - सब विद्वान् लोग सब मनुष्यों के प्रति ऐसा उपदेश करें कि जिस सर्वशक्तिमान् निराकार सर्वत्र व्यापक परमेश्वर की उपासना हम लोग करें तथा उसी को सुख और ऐश्वर्य का बढ़ानेवाला जानें, उसी की उपासना तुम लोग भी करो और उसी को सब की उन्नति करनेवाला जानो ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरः कीदृशः किमर्थ उपासनीय इत्याह ॥

अन्वय:

(तम्) (ईशानम्) ईशनशीलम् (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (पतिम्) पालकम् (धियञ्जिन्वम्) यो धियं प्रज्ञां जिन्वति प्रीणाति तम् (अवसे) रक्षणाद्याय (हूमहे) स्तुमः (वयम्) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (नः) अस्माकम् (यथा) (वेदसाम्) धनानाम् (असत्) भवेत् (वृधे) वृद्धये (रक्षिता) रक्षणकर्त्ता (पायुः) सर्वस्य रक्षकः (अदब्धः) अहिंसकः (स्वस्तये) सुखाय ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! वयमवसे जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वं तमीशानं हूमहे, स यथा नो वेदसां वृधे पूषा रक्षिता स्वस्तये पायुरदब्धोऽसत्तथा यूयं कुरुत स च युष्मभ्यमप्यस्तु ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे विद्वांसः सर्वान् प्रत्येवमुपदिशेयुर्यस्य सर्वशक्तिमतो निराकारस्य सर्वत्र व्यापकस्य परमेश्वरस्योपासनं वयं कुर्मस्तमेव सुखैश्वर्यवर्धकं जानीमस्तस्यैवोपासनं यूयमपि कुरुत तमेव सर्वोन्नतिकरं च विजानीत ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व विद्वानांनी सर्व माणसांना असा उपदेश करावा की, ज्या सर्व शक्तिमान निराकार सर्वत्र व्यापक परमेश्वराची उपासना आम्ही करतो त्यालाच सुख व ऐश्वर्याची वृद्धी करणारा समजावे. त्याचीच उपासना तुम्ही लोकांनी करावी. सर्वांची उन्नती करणारा तोच आहे, हे जाणावे.