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शादं॑ द॒द्भिरव॑कां दन्तमू॒लैर्मृदं॒ बर्स्वै॑स्ते॒ गां दष्ट्रा॑भ्या॒सर॑स्वत्याऽअग्रजि॒ह्वं जि॒ह्वाया॑ऽ उत्सा॒दम॑वक्र॒न्देन॒ तालु॒ वाज॒ꣳहनु॑भ्याम॒पऽआ॒स्ये᳖न॒ वृष॑णमा॒ण्डाभ्या॑मादि॒त्याँ श्मश्रु॑भिः॒ पन्था॑नं भ्रू॒भ्यां द्यावा॑पृथि॒वी वर्त्तो॑भ्यां वि॒द्युतं॑ क॒नीन॑काभ्या शु॒क्राय॒ स्वाहा॑ कृ॒ष्णाय॒ स्वाहा॒ पार्या॑णि॒ पक्ष्मा॑ण्यवा॒र्या᳖ऽइ॒क्षवो॑ऽवा॒र्या᳖णि॒ पक्ष्मा॑णि॒ पार्या॑ इ॒क्षवः॑ ॥१ ॥

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पद पाठ

शाद॑म्। द॒द्भिरिति॑ द॒त्ऽभिः। अव॑काम्। द॒न्त॒मू॒लैरिति॑ दन्तऽमू॒लैः। मृद॑म्। बर्स्वैः॑। ते॒। गाम्। दष्ट्रा॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। अ॒ग्र॒जि॒ह्वमित्य॑ग्रऽजि॒ह्वम्। जि॒ह्वायाः॑। उ॒त्सा॒दमित्यु॑त्ऽसा॒दम्। अ॒व॒क्रन्देनेत्य॑वऽक्र॒न्देन॑। तालु॑। वाज॑म्। हनु॑भ्या॒मिति॒ हनु॑ऽभ्याम्। अ॒पः। आ॒स्ये᳖न। वृष॑णम्। आ॒ण्डाभ्या॑म्। आ॒दि॒त्यान्। श्मश्रु॑भि॒रिति॒ श्मश्रु॑ऽभिः। पन्था॑नम्। भ्रू॒भ्याम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वर्त्तो॑भ्या॒मिति॒ वर्त्तः॑ऽभ्याम्। वि॒द्युत॑मिति॒ वि॒ऽद्युत॑म्। क॒नीन॑काभ्याम्। शु॒क्राय॑। स्वाहा॑। कृ॒ष्णाय॑। स्वाहा॑। पार्या॑णि। पक्ष्मा॑णि। अ॒वा॒र्याः᳖। इ॒क्षवः॑। अ॒वा॒र्या᳖णि। पक्ष्मा॑णि। पार्याः॑। इ॒क्षवः॑ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पच्चीसवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में किसको क्या करना चाहिये, इस विषय को कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अच्छे ज्ञान की चाहना करते हुए विद्यार्थी जन ! (ते) तेरे (दद्भिः) दाँतों से (शादम्) जिस में छेदन करता है, उस व्यवहार को (दन्तमूलैः) दाँतों की जड़ों और (बर्स्वैः) दाँतों की पछाडि़यों से (अवकाम्) रक्षा करनेवाली (मृदम्) मट्टी को (दंष्ट्राभ्याम्) डाढ़ों से (सरस्वत्यै) विशेष ज्ञानवाली वाणी के लिये (गाम्) वाणी को (जिह्वायाः) जीभ से (अग्रजिह्वम्) जीभ के अगले भाग को (अवक्रन्देन) विकलतारहित व्यवहार से (उत्सादम्) जिसमें ऊपर को स्थिर होती है, उस (तालु) को (हनुभ्याम्) ठोढ़ी के पास के भागों से (वाजम्) अन्न को (आस्येन) जिससे भोजन आदि पदार्थ को गीला करते उस मुख से (अपः) जलों को (आण्डाभ्याम्) वीर्य को अच्छे प्रकार धारण करने हारे आण्डों से (वृषणम्) वीर्य वर्षानेवाले अङ्ग को (श्मश्रुभिः) मुख के चारों ओर जो केश अर्थात् दाढ़ी उससे (आदित्यान्) मुख्य विद्वानों को (भ्रूभ्याम्) नेत्र-गोलकों के ऊपर जो भौंहे हैं, उन से (पन्थानम्) मार्ग को (वर्त्तोभ्याम्) जाने-आने से (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि तथा (कनीनकाभ्याम्) तेज से भरे हुए काले नेत्रों के तारों के सदृश गोलों से (विद्युतम्) बिजुली को मैं समझाता हूँ। तुझ को (शुक्राय) वीर्य के लिये (स्वाहा) ब्रह्मचर्य क्रिया से और (कृष्णाय) विद्या खींचने के लिये (स्वाहा) सुन्दरशीलयुक्त क्रिया से (पार्याणि) पूरे करने योग्य (पक्ष्माणि) जो सब ओर से लेने चाहिये, उन कामों वा पलकों के ऊपर के विन्ने वा (अवार्याः) नदी आदि के प्रथम ओर होनेवाले (इक्षवः) गन्नों के पौंडे वा (अवार्याणि) नदी आदि के पहिले किनारे पर होनेवाले पदार्थ (पक्ष्माणि) सब ओर से जिनका ग्रहण करें वा लोम और (पार्याः) पालना करने योग्य (इक्षवः) ऊख, जो गुड़ आदि के निमित्त हैं, वे पदार्थ अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहियें ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक लोग अपने शिष्यों के अङ्गों को उपदेश से अच्छे प्रकार पुष्ट कर तथा आहार वा विहार का अच्छा बोध, समस्त विद्याओं की प्राप्ति, अखण्डित ब्रह्मचर्य का सेवन और ऐश्वर्य की प्राप्ति करा के सुखयुक्त करें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ केन किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(शादम्) शीयते छिनत्ति यस्मिँस्तं शादम् (दद्भिः) दन्तैः (अवकाम्) रक्षिकाम् (दन्तमूलैः) दन्तानां मूलैः (मृदम्) मृत्तिकाम् (बर्स्वैः) दन्तपृष्ठैः (ते) तव (गाम्) वाणीम् (दंष्ट्राभ्याम्) मुखहन्ताभ्याम् (सरस्वत्यै) प्रशस्तविज्ञानवत्यै वाचे (अग्रजिह्वम्) जिह्वाया अग्रम् (जिह्वायाः) (उत्सादम्) ऊर्ध्वं सीदन्ति यस्मिँस्तम् (अवक्रन्देन) विकलतारहितेन (तालु) आस्यावयवम् (वाजम्) अन्नम् (हनुभ्याम्) मुखैकदेशाभ्याम् (अपः) जलानि (आस्येन) आस्यन्दन्ति क्लेदीभवन्ति यस्मिंस्तेन (वृषणम्) वर्षयितारम् (आण्डाभ्याम्) वीर्याधाराभ्याम् (आदित्यान्) मुख्यान् विदुषः (श्मश्रुभिः) मुखाऽभितः केशैः (पन्थानम्) मार्गम् (भ्रूभ्याम्) नेत्रगोलकोर्ध्वाऽवयवाभ्याम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (वर्त्तोभ्याम्) गमनागमनाभ्याम् (विद्युतम्) तडितम् (कनीनकाभ्याम्) तेजोमयाभ्यां कृष्णागोलकतारकाभ्याम् (शुक्राय) वीर्याय (स्वाहा) ब्रह्मचर्यक्रियया (कृष्णाय) विद्याकर्षणाय (स्वाहा) सुशीलतायुक्तया क्रियया (पार्याणि) परितुं पूरयितुं योग्यानि (पक्ष्माणि) परिग्रहीतुं योग्यानि कर्माणि नेत्रोर्ध्वलोमानि वा (अवार्याः) अवारे भवाः (इक्षवः) इक्षुदण्डाः (अवार्याणि) अवारेषु भवानि (पक्ष्माणि) परिग्रहणानि लोमानि वा (पार्याः) परितुं पालयितुं योग्याः (इक्षवः) गुडादिनिमित्ताः ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जिज्ञासो विद्यार्थिन् ! ते दद्भिः शादं दन्तमूलैर्बर्स्वैश्चावकां मृदं दंष्ट्राभ्यां सरस्वत्यै गां जिह्वाया अग्रजिह्वमवक्रन्देनोत्सादं तालु हनुभ्यां वाजमास्येनाऽप आण्डाभ्यां वृषणं श्मश्रुभिरादित्यान् भ्रूभ्यां पन्थानं वर्त्तोभ्यां द्यावापृथिवी कनीनकाभ्यां विद्युतमहं बोधयामि। त्वया शुक्राय स्वाहा कृष्णाय स्वाहा पार्याणि पक्ष्माण्यवार्या इक्षवोऽवार्याणि पक्ष्माणि पार्या इक्षवश्च संग्राह्याः ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापकाः शिष्याणामङ्गान्युपदेशेन पुष्टानि कृत्वाऽऽहारविहारादिकं संबोध्य सर्वा विद्याः प्रापय्याखण्डितं ब्रह्मचर्यं सेवयित्वैश्वर्यं प्रापय्य सुखिनः सम्पादयेयुः ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अध्यापकांनी आपल्या शिष्यांना शरीरासंबंधी उपदेश करून चांगले बलवान बनवावे व आहारविहाराबाबत माहिती द्यावी. संपूर्ण विद्यार्थी प्राप्ती, अखंड ब्रह्मचर्यपालन व ऐश्वर्यप्राप्ती करून द्यावी व सुखी करावे.