वांछित मन्त्र चुनें

अ॒जारे॑ पिशङ्गि॒ला श्वा॒वित्कु॑रुपिशङ्गि॒ला। श॒शऽआ॒स्कन्द॑मर्ष॒त्यहिः॒ पन्थां॒ वि स॑र्पति ॥५६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒जा। अ॒रे॒। पि॒श॒ङ्गि॒ला। श्वा॒वित्। श्व॒विदिति॑ श्व॒ऽवित्। कु॒रु॒पिश॒ङ्गि॒लेति॑ कुरुऽपिशङ्गि॒ला। श॒शः। आ॒स्कन्द॒मित्या॒ऽस्कन्द॑म्। अ॒र्ष॒ति॒। अहिः॑। पन्था॑म्। वि। स॒र्प॒ति॒ ॥५६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:56


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्व मन्त्र में कहे प्रश्नों के उत्तर अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अरे) हे मनुष्यो ! (अजा) जन्मरहित प्रकृति (पिशङ्गिला) विश्व के रूप को प्रलय समय में निगलनेवाली (श्वावित्) सेही (कुरुपिशङ्गिला) किये हुए खेती आदि के अवयवों का नाश करती है, (शशः) खरहा के तुल्य वेगयुक्त कृषि आदि में खरखरानेवाला वायु (आस्कन्दम्) अच्छे प्रकार कूद के चलने अर्थात् एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को शीघ्र (अर्षति) प्राप्त होता और (अहिः) मेघ (पन्थाम्) मार्ग में (वि, सर्पति) विविध प्रकार से जाता है, इस को तुम जानो ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो प्रकृति सब कार्यरूप जगत् का प्रलय करने हारी, कार्य्यकारणरूप अपने कार्य को अपने में लय करने हारी है, जो सेही खेती आदि का विनाश करती है, जो वायु खरहा के समान चलता हुआ सब को सुखाता है और जो मेघ साँप के समान पृथिवी पर जाता है, उन सब को जानो ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्वप्रश्नानामुत्तराण्याह ॥

अन्वय:

(अजा) जन्मरहिता प्रकृतिः (अरे) सम्बोधने (पिशङ्गिला) (श्वावित्) पशुविशेष इव (कुरुपिशङ्गिला) कुरोः कृतस्य कृष्यादेः पिशान्यङ्गानि गिलति सा (शशः) पशुविशेष इव वायुः (आस्कन्दम्) समन्तादुत्प्लुत्य गमनम् (अर्षति) प्राप्नोति (अहिः) मेघः (पन्थाम्) पन्थानम् (वि, सर्पति) विविधतया गच्छति ॥५६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अरे मनुष्याः ! अजा पिशङ्गिला श्वावित्कुरुपिशङ्गिलाऽस्ति, शश आस्कन्दमर्षत्यहिः पन्थां विसर्पतीति विजानीत ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! याऽजा प्रकृतिः सर्वकार्यप्रलयाधिकारिणी कार्यकारणाख्या स्वकार्य्यं स्वस्मिन् प्रलापयति। या सेधा कृष्यादिकं विनाशयति, यो वायुः शश इव गच्छन् सर्वं शोषयति, यो मेघः सर्प इव गच्छति, तान् विजानीत ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! प्रकृती ही सर्व कार्यरूपी जगाचा प्रलय करणारी (गिळून टाकणारी) असून कार्यकारणरूपी कार्याचा आपल्यातच लय करणारी आहे. शेतीचा नाश जंतू करतात. वायू हा सशाप्रमाणे शीघ्र चालतो, सर्वांना सुकवितो. मेघ सापाप्रमाणे जलमार्गाचा विस्तार करून पृथ्वीवर येतो त्या सर्वांना तुम्ही जाणा.