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सूर्य्य॑ऽएका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुनः॑। अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत्॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूर्य्यः॑। ए॒का॒की। च॒र॒ति॒। च॒न्द्रमाः॑। जा॒य॒ते॒। पुन॒रिति॒ऽपुनः॑। अ॒ग्निः। हि॒मस्य॑। भे॒ष॒जम्। भूमिः॑। आ॒वप॑न॒मित्या॒ऽवप॑नम्। म॒हत्॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूर्वोक्त प्रश्नों के उत्तरों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जिज्ञासु जानने की इच्छा करनेवाले पुरुष ! (सूर्य्यः) सूर्यलोक (एकाकी) अकेला (चरति) स्वपरिधि में घूमता है। (चन्द्रमाः) आनन्द देनेवाला चन्द्रमा (पुनः) फिर-फिर (जायते) प्रकाशित होता है। (अग्निः) पावक (हिमस्य) शीत का (भेषजम्) औषध और (महत्) बड़ा (आवपनम्) अच्छे प्रकार बोने का आधार कि जिस में सब वस्तु बोते हैं, (भूमिः) वह भूमि है ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! सूर्य अपनी ही परिधि में घूमता है, किसी लोकान्तर के चारों ओर नहीं घूमता। चन्द्रादि लोक उसी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। अग्नि ही शीत का नाशक और सब बीजों के बोने को बड़ा क्षेत्र भूमि ही है, ऐसा तुम लोग जानो ॥४६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पूर्वोक्तप्रश्नोत्तराण्याह ॥

अन्वय:

(सूर्य्यः) सूर्य्यलोकः (एकाकी) असहायः (चरति) (चन्द्रमाः) आह्लादकरश्चन्द्रः (जायते) प्रकाशितो भवति (पुनः) पश्चात् (अग्निः) पावकः (हिमस्य) शीतस्य (भेषजम्) औषधम् (भूमिः) भवन्ति भूतानि यस्यां सा पृथिवी (आवपनम्) समन्ताद् वपन्ति यस्मिँस्तत् (महत्) विस्तीर्णम् ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जिज्ञासो ! सूर्य एकाकी चरति, चन्द्रमाः पुनर्जायते, अग्निर्हिमस्य भेषजम्, महदावपनं भूमिरस्तीति ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसः ! सूर्यः स्वस्यैव परिधौ भ्रमति, न कस्यचिल्लोकस्य परितः। चन्द्रादिलोकास्तेनैव प्रकाशिता भवन्ति। अग्निरेव शीतविनाशकस्सर्वबीजवपनार्थं महत्क्षेत्रं भूमिरेवास्तीति यूयं विजानीत ॥४६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! सूर्य आपल्या कक्षेत फिरतो कोणत्याही गोलाभोवती फिरत नाही. चंद्र वगैरे सूर्याच्या प्रकाशानेच चमकतात. थंडीचा नाश अग्नीमुळे होतो तर भूमी ही सर्व बीज पेरेण्याचे मोठे क्षेत्र असते हे तुम्ही जाणा.