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ऋ॒तव॑स्तऽऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ विशा॑सतु। सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभिः॑ शम्यन्तु त्वा ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तवः॑। ते॒। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। पर्व॑। श॒मि॒तारः॑। वि। शा॒स॒तु॒। सं॒व॒त्स॒रस्य॑। तेज॑सा। श॒मीभिः॑। श॒म्य॒न्तु॒। त्वा॒ ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुष कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यार्थी जन ! जैसे (ते) तेरे (ऋतवः) वसन्त आदि ऋतु (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु के गुणों से (पर्व) पालना कर (शमितारः) वैसे पढ़ाने रूप यज्ञ में शम, दम आदि गुणों की प्राप्ति करानेहारे अध्यापक पढ़नेवालों को (वि, शासतु) विशेषता से उपदेश करें (संवत्सरस्य) और संवत् के (तेजसा) जल (शमीभिः) और कर्मों से (त्वा) तुझे (शम्यन्तु) शान्ति दें, उनकी तू सदैव सेवा कर ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋतु पारी से अपने-अपने चिह्नों को प्राप्त होते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष पारी से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ का धर्म, वानप्रस्थ वन में रहकर तप करना और संन्यास आश्रम को करके; ब्राह्मण और ब्राह्मणी पढ़ावें, क्षत्रिय और क्षत्रिया प्रजा की रक्षा करें, वैश्य और वैश्या खेती आदि की उन्नति करें और शूद्र-शूद्रा उक्त ब्राह्मण आदि की सेवा किया करें ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(ऋतवः) वसन्ताद्याः (ते) तव (ऋतुथा) ऋतुभ्यः (पर्व) पालनम् (शमितारः) अध्ययनाध्यापनाख्ये यज्ञे शमादिगुणानां प्रापकाः (वि, शासतु) विशेषेणोपदिशन्तु (संवत्सरस्य) (तेजसा) जलेन। तेज इत्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (शमीभिः) कर्मभिः (शम्यन्तु) (त्वा) त्वाम् ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यार्थिन् ! यथा ते ऋतव ऋतथा पर्वेव शमितारोऽध्येतारं विशासतु संवत्सरस्य तेजसा शमीभिस्त्वा त्वां शम्यन्तु तांस्त्वं सदैव सेवस्व ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ऋतवः पर्यायेण स्वानि स्वानि लिङ्गान्यभिपद्यन्ते, तथैव स्त्रीपुरुषाः पर्यायेण ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमान् कृत्वा, ब्राह्मणा ब्राह्मण्यश्चाऽध्यापयेयुः, क्षत्रियाः प्रजा रक्षन्तु, वैश्याः कृष्यादिकमुन्नयन्तु, शूद्राश्चैतान् सेवन्तामिति ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ऋतूचे चिन्ह क्रमाक्रमाने प्रकट होते तसे स्री-पुरुषांनीही क्रमाक्रमाने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ यांचे पालन करावे व संन्यासाश्रमाचा स्वीकार करावा. ब्राह्मण व ब्राह्मण स्रीने अध्यापन करावे. क्षत्रिय व क्षत्रिय स्रीने प्रजेचे रक्षण करावे. वैश्य व वैश्य स्रीने शेतीचा विकास करावा आणि शूद्र व शूद्र स्रीने इतरांची सेवा करावी.