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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ईश्वर के विषय में अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (सवितुः) समस्त संसार उत्पन्न करने हारे (देवस्य) आप से आप ही प्रकाशरूप सब के चाहने योग्य समस्त सुखों के देने हारे परमेश्वर के जिस (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य अति उत्तम (भर्गः) समस्त दोषों के दाह करनेवाले तेजोमय शुद्धस्वरूप को हम लोग (धीमहि) धारण करते हैं, (तत्) उसको तुम लोग धारण करो (यः) जो (नः) हम सब लोगों की (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्रेरे अर्थात् उनको अच्छे-अच्छे कामों में लगावे, वह अन्तर्यामी परमात्मा सबके उपासना करने के योग्य है ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, सब के अन्तर्यामी परमात्मा को छोड़के उसकी जगह में अन्य किसी पदार्थ की उपासना का स्थापन कभी न करें। किस प्रयोजन के लिये कि जो हम लोगों से उपासना किया हुआ परमात्मा हमारी बुद्धियों को अधर्म के आचरण से छुड़ाके धर्म के आचरण में प्रवृत्त करे, जिससे शुद्ध हुए हम लोग उस परमात्मा को प्राप्त होकर इस लोक और परलोक के सुखों को भोगें, इस प्रयोजन के लिये ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेश्वरविषयमाह ॥
अन्वय:
(तत्) (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य (वरेण्यम्) वरेण्यं वर्त्तुमर्हमत्युत्तमम् (भर्गः) सर्वदोषप्रदाहकं तेजोमयं शुद्धम् (देवस्य) स्वप्रकाशस्वरूपस्य सर्वैः कमनीयस्य सर्वसुखप्रदस्य (धीमहि) दधीमहि (धियः) प्रज्ञाः (यः) परमात्मा (नः) अस्माकम् (प्रचोदयात्) ॥९ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! सवितुर्देवस्य यद्वरेण्यं भर्गो वयं धीमहि तदेव यूयं धरत, यो नः सर्वेषां धियः प्रचोदयात् सोऽन्तर्यामी सर्वैरुपासनीयः ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैः सच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वान्तर्यामिणं परमात्मानं विहायैतस्य स्थानेऽन्यस्य कस्यचित्पदार्थस्योपासनास्थापनं कदाचिन्नैव कार्य्यम्। कस्मै प्रयोजनाय? योऽस्माभिरुपासितः सन्नस्माकं बुद्धीरधर्माचरणान् निवर्त्य धर्माचरणे प्रेरयेत्, येन शुद्धाः सन्तो वयं तं परमात्मानं प्राप्यैहिकपारमार्थिके सुखे भुञ्जीमहीत्यस्मै ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी सच्चिदानंदस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, स्वभाव, सर्वांतर्यामी परमेश्वराला सोडून अन्य कोणाचीही उपासना करू नये. याचे कारण असे की, परमेश्वराने आमची बुद्धी अधर्माचरणापासून दूर करावी व धर्माकडे वळवावी व पवित्र बनून आम्ही परमेश्वर प्राप्त करावी आणि इह लोक व परलोक यांचे सुख भोगावे.