वांछित मन्त्र चुनें

अ॒ग्नये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॒पां मोदा॑य॒ स्वाहा॑ सवि॒त्रे स्वाहा॑ वा॒यवे॒ स्वाहा॒ विष्ण॑वे॒ स्वाहेन्द्रा॑य॒ स्वाहा॒ बृह॒स्पत॑ये॒ स्वाहा॑ मि॒त्राय॒ स्वाहा॒ वरु॑णाय॒ स्वाहा॑ ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सोमा॑य। स्वाहा॑। अ॒पाम्। मोदा॑य। स्वाहा। स॒वि॒त्रे। स्वाहा॑। वा॒यवे॑। स्वाहा॑। वि॒ष्णवे॑। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। स्वाहा॑। बृह॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। वरु॑णाय। स्वाहा॑ ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यदि मनुष्य (अग्नये) अग्नि के लिये (स्वाहा) श्रेष्ठ क्रिया वा (सोमाय) ओषधियों के शोधने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा (अपाम्) जलों के सम्बन्ध से जो (मोदाय) आनन्द होता है, उस के लिये (स्वाहा) सुख पहुँचानेवाली क्रिया वा (सवित्रे) सूर्यमण्डल के अर्थ (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा (वायवे) पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विष्णवे) बिजुलीरूप आग में (स्वाहा) उत्तम क्रिया (इन्द्राय) जीव के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (बृहस्पतये) बड़ों की पालना करनेवाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मित्राय) मित्र के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वरुणाय) श्रेष्ठ के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया करें तो कौन-कौन सुख न मिले? ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो आग में उत्तमता से सिद्ध किया हुआ घी आदि हवि होमा जाता है, वह ओषधि, जल, सूर्य के तेज, वायु और बिजुली को अच्छे प्रकार शुद्ध कर ऐश्वर्य्य को बढ़ाने प्राण, अपान और प्रजा की रक्षारूप श्रेष्ठों के सत्कार का निमित्त होता है। कोई द्रव्य स्वरूप से नष्ट नहीं होता, किन्तु अवस्थान्तर को पाके सर्वत्र ही परिणाम को प्राप्त होता है; इसी से सुगन्ध, मीठापन, पुष्टि देने और रोगविनाश करने हारे गुणों से युक्त पदार्थ आग में छोड़कर ओषाधि आदि पदार्थों की शुद्धि के द्वारा संसार का नीरोगपन सिद्ध करना चाहिये ॥६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(अग्नये) पावकाय (स्वाहा) श्रेष्ठया क्रियया (सोमाय) ओषधिगणशोधनाय (स्वाहा) (अपाम्) जलानाम् (मोदाय) आनन्दाय (स्वाहा) सुखप्रापिका क्रिया (सवित्रे) सूर्याय (स्वाहा) (वायवे) (स्वाहा) (विष्णवे) व्यापकाय विद्युद्रूपाय (स्वाहा) (इन्द्राय) जीवाय (स्वाहा) (बृहस्पतये) बृहतां पालकाय (स्वाहा) (मित्राय) सख्ये (स्वाहा) सत्क्रिया (वरुणाय) श्रेष्ठाय (स्वाहा) उत्तमक्रिया ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यदि मनुष्या अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहाऽपां मोदाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा वायवे स्वाहा विष्णवे स्वाहेन्द्राय स्वाहा बृहस्पतये स्वाहा मित्राय स्वाहा वरुणाय स्वाहा क्रियेरंस्तर्हि किं किं सुखं न प्राप्येत ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यदग्नौ संस्कृतं घृतादिकं हविर्हूयते तदोषधिजलं सूर्यतेजो वायुविद्युतौ च संशोध्यैश्वर्यवर्द्धनप्राणापानप्रजारक्षणश्रेष्ठसत्कारनिमित्तं जायते। किंचिदपि द्रव्यं स्वरूपतो नष्टं न भवति, किन्तु अवस्थान्तरं प्राप्य सर्वत्रैव परिणतं जायते; अत एव सुगन्धमिष्टपुष्टिरोगनाशकगुणैर्युक्तानि द्रव्याण्यग्नौ प्रक्षिप्यौषध्यादिशुद्धिद्वारा जगदारोग्यं सम्पादनीयम् ॥६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! यज्ञात तुपाची जी आहुती दिली जाते त्यामुळे जल, सूर्य, वायू व विद्युत यांची चांगल्याप्रकारे शुद्धी होते व त्यामुळे ऐश्वर्याची वाढ होते. ती आहुती प्राण-अपान, प्रजेचे रक्षण व श्रेष्ठांचा सत्कार यांचे कारण (निमित्त) ठरते. कोणताही पदार्थ नष्ट होत नाही, तर त्याचे रूपांतर होते व तो सूक्ष्म बनून अधिक परिणामकारक होतो. अशा सुगंधित, पुष्टिकारक आणि रोगनाशक पदार्थांचा अग्नीत होम करून सर्व वृक्ष, वनस्पती इत्यादी पदार्थांची शुद्धी करावी व जगातील आरोग्य वाढविण्यासाठी मदत करावी.