वांछित मन्त्र चुनें

स्व॒गा त्वा॑ दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ ब्रह्म॒न्नश्वं॑ भ॒न्त्स्यामि॑ दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ तेन॑ राध्यासम्। तं ब॑धान दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ तेन॑ राध्नुहि ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒गेति॑ स्व॒ऽगा। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। ब्रह्म॑न्। अश्व॑म्। भ॒न्त्स्यामि॑। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। तेन॑। रा॒ध्या॒स॒म्। तम्। ब॒धा॒न॒। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। तेन॑। रा॒ध्नु॒हि॒ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मन्) विद्या से वृद्धि को प्राप्त ! मैं (त्वा) तुझे (स्वगा) आप जानेवाला करता हूँ (देवेभ्यः) विद्वानों और (प्रजापतये) सन्तानों की रक्षा करने हारे गृहस्थ के लिये (अश्वम्) बड़े सर्वव्यापी उत्तम गुण को (भन्त्स्यामि) बाँधूँगा (तेन) उससे (देवेभ्यः) दिव्य गुणों और (प्रजापतये) सन्तानों को पालनेहारे गृहस्थ के लिये (राध्यासम्) अच्छे प्रकार सिद्ध होऊँ (तम्) उस को तू (बधान) बाँध (तेन) उससे (देवेभ्यः) दिव्य गुण, कर्म और स्वभाववालों तथा (प्रजापतये) प्रजा पालनेवाले के लिये (राध्नुहि) अच्छे प्रकार सिद्ध होओ ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्या, अच्छी शिक्षा, ब्रह्मचर्य और अच्छे सङ्ग से शरीर और आत्मा के अत्यन्त बल को सिद्ध कर दिव्य गुणों को ग्रहण और विद्वानों के लिये सुख देकर अपनी और पराई वृद्धि करें ॥४ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(स्वगा) स्वयं गच्छतीति स्वगास्तं स्वयंगामिनम्। अत्र विभक्तेर्डादेशः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (प्रजापतये) प्रजायाः पालकाय (ब्रह्मन्) विद्यया वृद्ध (अश्वम्) महान्तम् (भन्त्स्यामि) बद्धं करिष्यामि (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (प्रजापतये) प्रजापालकाय गृहस्थाय (तेन) (राध्यासम्) सम्यक्सिद्धो भवेयम् (तम्) (बधान) (देवेभ्यः) दिव्यगुणकर्मस्वभावेभ्यः (प्रजापतये) प्रजापालकाय (तेन) (राध्नुहि) सम्यक्सिद्धो भव ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ब्रह्मन्नहं त्वा स्वगा करोमि देवेभ्यः प्रजापतयेऽश्वं भन्त्स्यामि, तेन देवेभ्यः प्रजापतये राध्यासं तं त्वं बधान तेन देवेभ्यः प्रजापतये राध्नुहि ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैर्विद्यासुशिक्षाब्रह्मचर्य्यसत्सङ्गैः शरीरात्मनोर्महद्बलं संपाद्य दिव्यान् गुणान् गृहीत्वा विद्वद्भ्यः सुखं दत्त्वा स्वस्य परेषां च वृद्धिः कार्या ॥४ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी विद्या, चांगले शिक्षण व ब्रह्मचर्य, तसेच सत्संग यांनी शरीर व आत्मा यांचे बल प्राप्त करावे व दिव्य गुणांचे ग्रहण करून विद्वानांना सुख द्यावे. आपली व इतरांची उन्नती करावी.