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वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑पि॒जाय॒ स्वाहा॑ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ स्वः᳕ स्वाहा॑ मू॒र्ध्ने स्वाहा॑ व्यश्नु॒विने॒ स्वाहान्त्या॑य॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वाजा॑य। स्वाहा॑। प्र॒स॒वायेति॑ प्रऽस॒वाय॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। स्व᳕रिति॒ स्वः᳕। स्वाहा॑। मू॒र्ध्ने। स्वाहा॑। व्य॒श्नु॒विन॒ इति॑ विऽअश्नु॒विने॑। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑ ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (वाजाय) अन्न के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रसवाय) पदार्थों की उत्पत्ति करने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अपिजाय) घर के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (क्रतवे) बुद्धि वा कर्म के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (स्वः) अत्यन्त सुख के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मूर्ध्ने) शिर की शुद्धि होने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (व्यश्नुविने) व्याप्त होनेवाले वीर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आन्त्याय) व्यवहारों के अन्त में होनेवाले व्यवहार के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आन्त्याय) अन्त में होनेवाले (भौवनाय) जो संसार में प्रसिद्ध होता उस के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (भुवनस्य) संसार की (पतये) पालना करनेवाले स्वामी के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अधिपतये) सब के अधिष्ठाता अर्थात् सब पर जो एक शिक्षा देता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तथा (प्रजापतये) सब प्रजाजनों की पालना करनेवाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया को सदा भलीभाँति युक्त करो ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अन्न, सन्तान, नर, बुद्धि और शिर आदि के शोधन से सुख बढ़ाने के लिये सत्यक्रिया को करते हैं, वे परमात्मा की उपासना करके प्रजा के अधिक पालना करनेवाले होते हैं ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(वाजाय) अन्नाय (स्वाहा) (प्रसवाय) उत्पादकाय (स्वाहा) (अपिजाय) उत्पन्नाय (स्वाहा) (क्रतवे) प्रज्ञायै कर्मणे वा (स्वाहा) (स्वः) सुखाय (स्वाहा) (मूर्ध्ने) मस्तकशुद्धये (स्वाहा) (व्यश्नुविने) व्यापिने वीर्य्याय (स्वाहा) (आन्त्याय) (स्वाहा) (आन्त्याय) अन्ते भवाय (भौवनाय) भुवने भवाय (स्वाहा) (भुवनस्य, पतये) सर्वजगत्स्वामिने (स्वाहा) (अधिपतये) सर्वाधिष्ठात्रे (स्वाहा) (प्रजापतये) सर्वप्रजापालकाय (स्वाहा) ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - भो मनुष्याः ! यूयं वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहाऽपिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा स्वः स्वाहा मूर्ध्ने स्वाहा व्यश्नुविने स्वाहाऽऽन्त्याय स्वाहान्त्याय भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाऽधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा च सदा प्रयुञ्जीध्वम् ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अन्नापत्यगृहप्रज्ञामूर्धादिशोधनेन सुखवर्द्धनाय सत्यां क्रियां कुर्वन्ति, ते परमात्मानमुपास्य प्रजाऽधिपतयो भवन्ति ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अन्न, संतान, घर, बुद्धी व मस्तक इत्यादींची शुद्धी करून सत्य कर्म करतात ती सुख वाढवितात व प्रजेचे पालन करून परमेश्वराची उपासना करतात.