वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑पि॒जाय॒ स्वाहा॑ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ स्वः᳕ स्वाहा॑ मू॒र्ध्ने स्वाहा॑ व्यश्नु॒विने॒ स्वाहान्त्या॑य॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ ॥३२ ॥
वाजा॑य। स्वाहा॑। प्र॒स॒वायेति॑ प्रऽस॒वाय॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। स्व᳕रिति॒ स्वः᳕। स्वाहा॑। मू॒र्ध्ने। स्वाहा॑। व्य॒श्नु॒विन॒ इति॑ विऽअश्नु॒विने॑। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑ ॥३२ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(वाजाय) अन्नाय (स्वाहा) (प्रसवाय) उत्पादकाय (स्वाहा) (अपिजाय) उत्पन्नाय (स्वाहा) (क्रतवे) प्रज्ञायै कर्मणे वा (स्वाहा) (स्वः) सुखाय (स्वाहा) (मूर्ध्ने) मस्तकशुद्धये (स्वाहा) (व्यश्नुविने) व्यापिने वीर्य्याय (स्वाहा) (आन्त्याय) (स्वाहा) (आन्त्याय) अन्ते भवाय (भौवनाय) भुवने भवाय (स्वाहा) (भुवनस्य, पतये) सर्वजगत्स्वामिने (स्वाहा) (अधिपतये) सर्वाधिष्ठात्रे (स्वाहा) (प्रजापतये) सर्वप्रजापालकाय (स्वाहा) ॥३२ ॥