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अस॑वे॒ स्वाहा॒ वस॑वे॒ स्वाहा॑ वि॒भुवे॒ स्वाहा॒ विव॑स्वते॒ स्वाहा॑ गण॒श्रिये॒ स्वाहा॑ ग॒णप॑तये॒ स्वाहा॑भि॒भुवे॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ शू॒षाय॒ स्वाहा॑ सꣳस॒र्पाय॒ स्वाहा॑ च॒न्द्राय॒ स्वाहा॒ ज्योति॑षे॒ स्वाहा॑ मलिम्लु॒चाय॒ स्वाहा॒ दिवा॑ प॒तये॒ स्वाहा॑ ॥३० ॥

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पद पाठ

अस॑वे। स्वाहा॑। वस॑वे। स्वाहा॑। वि॒भुव॒ इति॑ वि॒ऽभुवे॑। स्वाहा॑। विव॑स्वते। स्वाहा॑। ग॒ण॒श्रिय॒ इति॑ गण॒ऽश्रिये॑। स्वाहा॑। ग॒णप॑तय॒ इति॑ ग॒णऽप॑तये। स्वाहा॑। अ॒भि॒भुव॒ इत्य॑भि॒ऽभुवे॑। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इ॒त्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। शू॒षाय॑। स्वाहा॑। स॒ꣳस॒र्पायेति॑ सम्ऽस॒र्पाय॑। स्वाहा॑। च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑। ज्योति॑षे। स्वाहा॑। म॒लि॒म्लु॒चाय॑। स्वाहा॑। दिवा॑। प॒तये॑। स्वाहा॑ ॥३० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (असवे) प्राणों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (वसवे) जो इस शरीर में बसता है, उस जीव के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (विभुवे) व्याप्त होनेवाले पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (विवस्वते) सूर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (गणश्रिये) जो पदार्थों के लिये समूहों की शोभा बिजुली है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (गणपतये) पदार्थों के समूहों के पालने हारे पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अभिभुवे) सन्मुख होनेवाले के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अधिपतये) सब के स्वामी राजा के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शूषाय) बल और तीक्ष्णता के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (संसर्पाय) जो भलीभाँति करके रिंगे उस जीव के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (चन्द्राय) सुवर्ण के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (ज्योतिषे) ज्योतिः अर्थात् सूर्य, चन्द्र और तारागणों के प्रकाश के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (मलिम्लुचाय) चोर के लिये (स्वाहा) उसके प्रबन्ध करने की क्रिया तथा (दिवा, पतये) दिन के पालनेहारे सूर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया को अच्छे प्रकार युक्त करो ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि प्राण आदि की शुद्धि के लिये आग में पुष्टि करनेवाले आदि पदार्थ का होम करें ॥३० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(असवे) प्राणाय (स्वाहा) (वसवे) योऽस्मिन् शरीरे वसति तस्मै जीवाय (स्वाहा) (विभुवे) व्यापकाय वायवे (स्वाहा) (विवस्वते) सूर्याय (स्वाहा) (गणश्रिये) या गणानां समूहानां श्रीः शोभा तस्यै विद्युते (स्वाहा) (गणपतये) समूहानां पालकाय वायवे (स्वाहा) (अभिभुवे) अभिमुखं भावुकाय (स्वाहा) (अधिपतये) सर्वस्वामिने राज्ञे (स्वाहा) (शूषाय) बलाय सैन्याय (स्वाहा) (संसर्पाय) यः सम्यक्सर्पति गच्छति तस्मै (स्वाहा) (चन्द्राय) सुवर्णाय। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम् ॥ निघं०१.२ ॥ (स्वाहा) (ज्योतिषे) प्रदीपनाय (स्वाहा) (मलिम्लुचाय) स्तेनाय। मलिम्लुच इति स्तेननामसु पठितम् ॥ निघं०३.२४ ॥ (स्वाहा) (दिवा, पतये) दिनस्य पालकाय सूर्याय (स्वाहा) ॥३० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयमसवे स्वाहा वसवे स्वाहा विभुवे स्वाहा विवस्वते स्वाहा गणश्रिये स्वाहा गणपतये स्वाहाऽभिभुवे स्वायाऽधिपतये स्वाहा शूषाय स्वाहा संसर्पाय स्वाहा चन्द्राय स्वाहा ज्योतिषे स्वाहा मलिम्लुचाय स्वाहा दिवापतये स्वाहा च प्रयुङ्ध्वम् ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः प्राणादिशुद्धयेऽग्नौ पुष्टिकरादिद्रव्यं होतव्यम् ॥३० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी प्राण इत्यादींची शुद्धी करण्यासाठी पुष्टी करणारे पदार्थ यज्ञात घालून होम करावा.