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अ॒ग्नये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ स्वाहेन्द्रा॑य॒ स्वाहा॑ पृथि॒व्यै स्वाहा॒ऽन्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ दि॒वे स्वाहा॑ दि॒ग्भ्यः स्वाहाऽऽशा॑भ्यः॒ स्वाहो॒र्व्यै᳖ दि॒शे स्वाहा॒र्वाच्यै॑ दि॒शे स्वाहा॑ ॥२७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सोमा॑य। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। स्वाहा॑। पृ॒थि॒व्यै। स्वाहा॑। अ॒न्तरि॑क्षाय। स्वाहा॑। दि॒वे। स्वाहा॑। दि॒ग्भ्य इति॑ दि॒क्ऽभ्यः। स्वाहा॑। आशा॑भ्यः। स्वाहा॑। उ॒र्व्यै᳖। दि॒शे। स्वाहा॑। अ॒र्वाच्यै॑। दि॒शे। स्वाहा॑ ॥२७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को (अग्नये) जाठराग्नि अर्थात् पेट के भीतर अन्न पचानेवाली आग के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (सोमाय) उत्तम रस के लिये (स्वाहा) सुन्दर क्रिया (इन्द्राय) जीव, बिजुली और परम ऐश्वर्य के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (पृथिव्यै) पृथिवी के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अन्तरिक्षाय) आकाश के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (दिवे) प्रकाश के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (दिग्भ्यः) पूर्वादि दिशाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आशाभ्यः) एक दूसरी में जो व्याप्त हो रही अर्थात् ईशान आदि कोण दिशाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उर्व्यै) समय को पाकर अनेक रूप दिखानेवाली अर्थात् वर्षा, गर्मी, सर्दी के समय के रूप की अलग-अलग प्रतीति करानेवाली (दिशे) दिशा के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (अर्वाच्यै) नीचे की (दिशे) दिशा के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया अवश्य विधान करनी चाहिये ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि के द्वारा अर्थात् आग में होम कर औषधि आदि पदार्थों में सुगन्धि आदि पदार्थ का विस्तार करें वे जगत् के हित करनेवाले होवें ॥२७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अग्नये) जाठराग्नये (स्वाहा) (सोमाय) उत्तमाय रसाय (स्वाहा) (इन्द्राय) जीवाय विद्युते परमैश्वर्याय वा (स्वाहा) (पृथिव्यै) (स्वाहा) (अन्तरिक्षाय) आकाशाय (स्वाहा) (दिवे) प्रकाशाय (स्वाहा) (दिग्भ्यः) (स्वाहा) (आशाभ्यः) व्यापिकाभ्यः (स्वाहा) (उर्व्यै) बहूरूपायै (दिशे) (स्वाहा) (अर्वाच्यै) निम्नायै (दिशे) (स्वाहा) ॥२७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यैरग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहेन्द्राय स्वाहा पृथिव्यै स्वाहाऽन्तरिक्षाय स्वाहा दिवे स्वाहा दिग्भ्यः स्वाहाऽऽशाभ्यः स्वाहोर्व्यै दिशे स्वाहाऽर्वाच्यै दिशे स्वाहा चाऽवश्यं विधेयाः ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्निद्वारा ओषध्यादिषु सुगन्ध्यादिद्रव्यं विस्तारयेयुस्ते जगद्धितकराः स्युः ॥२७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नीद्वारे अर्थात् होम करून सर्व पदार्थांमध्ये सुगंधांचा फैलाव करतात ती जगाचे हित करणारी असतात.