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अ॒द्भ्यः स्वाहा॑ वा॒र्भ्यः स्वाहो॑द॒काय॒ स्वाहा॒ तिष्ठ॑न्तीभ्यः॒ स्वाहा॒ स्रव॑न्तीभ्यः॒ स्वाहा॒ स्यन्द॑मानाभ्यः॒ स्वाहा॒ कूप्या॑भ्यः॒ स्वाहा॒ सूद्या॑भ्यः॒ स्वाहा॒ धार्या॑भ्यः॒ स्वाहा॑र्ण॒वाय॒ स्वाहा॑ समु॒द्राय॒ स्वाहा॑ सरि॒राय॒ स्वाहा॑ ॥२५ ॥

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पद पाठ

अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। स्वाहा॑। वा॒र्भ्य इति॑ वाः॒ऽभ्यः। स्वाहा॑। उ॒द॒काय॑। स्वाहा॑। तिष्ठ॑न्तीभ्यः। स्वाहा॑। स्रव॑न्तीभ्यः। स्वाहा॑। स्यन्द॑मानाभ्यः। स्वाहा॑। कूप्या॑भ्यः। स्वाहा॑। सूद्या॑भ्यः। स्वाहा॑। धार्य्या॑भ्यः। स्वाहा॑। अ॒र्ण॒वाय॑। स्वाहा॑। स॒मु॒द्राय॑। स्वाहा॑। स॒रि॒राय॑। स्वाहा॑ ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:25


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जिन मनुष्यों ने यज्ञकर्मों में सुगन्धि आदि पदार्थ होमने के लिये (अद्भ्यः) सामान्य जलों के लिये (स्वाहा) उन को शुद्ध करने की क्रिया (वार्भ्यः) स्वीकार करने योग्य अति उत्तम जलों के लिये (स्वाहा) उनको शुद्ध करने की क्रिया (उदकाय) पदार्थों को गीले करने वा सूर्य की किरणों से ऊपर को जाते हुए जल के लिये (स्वाहा) उनको शुद्ध करनेवाली क्रिया (तिष्ठन्तीभ्यः) बहते हुए जलों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (स्रवन्तीभ्यः) शीघ्र बहते हुए जलों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (स्यन्दमानाभ्यः) धीरे-धीरे चलते जलों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (कूप्याभ्यः) कुएँ में हुए जलों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (सूद्याभ्यः) भलीभाँति भिगोने हारे अर्थात् वर्षा आदि से जो भिगोते हैं, उन जलों के लिये (स्वाहा) उनके शुद्ध करने की क्रिया (धार्याभ्यः) धारण करने योग्य जो जल हैं, उनके लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (अर्णवाय) जिस में बहुल जल है, उस बड़े नद के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (समुद्राय) जिस में अच्छे प्रकार नद-महानद, नदी-महानदी, झील, झरना आदि के जल जा मिलते हैं, उस सागर वा महासागर के लिये (स्वाहा) शुद्ध करनेवाली क्रिया और (सरिराय) अति सुन्दर मनोहर जल के लिये (स्वाहा) उसकी रक्षा करनेवाली क्रिया विधान की है, वे सब को सुख देनेहारे होते हैं ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आग में सुगन्धि आदि पदार्थों को होमें, वे जल आदि पदार्थों की शुद्धि करने हारे हो पुण्यात्मा होते हैं और जल की शुद्धि से ही सब पदार्थों की शुद्धि होती है, यह जानना चाहिये ॥२५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अद्भ्यः) जलेभ्यः (स्वाहा) शुद्धिकारिका क्रिया (वार्भ्यः) वरणीयेभ्यः (स्वाहा) (उदकाय) आर्द्रीकारकाय (स्वाहा) (तिष्ठन्तीभ्यः) स्थिराभ्यः (स्वाहा) (स्रवन्तीभ्यः) सद्योगामिनीभ्यः (स्वाहा) (स्यन्दमानाभ्यः) प्रस्रुताभ्यः (स्वाहा) (कूप्याभ्यः) कूपेषु भवाभ्यः (स्वाहा) (सूद्याभ्यः) सुष्ठु क्लेदिकाभ्यः (स्वाहा) (धार्याभ्यः) धर्त्तुं योग्याभ्यः (स्वाहा) (अर्णवाय) बहून्यर्णांसि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मै (स्वाहा) (समुद्राय) समुद्रवन्त्यापो यस्मिंस्तस्मै (स्वाहा) (सरिराय) कमनीयाय (स्वाहा) ॥२५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यैर्मनुष्यैर्यज्ञेषु सुगन्ध्यादिद्रव्यहवनायाऽद्भ्यः स्वाहा वार्भ्यः स्वाहोदकाय स्वाहा तिष्ठन्तीभ्यः स्वाहा स्रवन्तीभ्यः स्वाहा स्यन्दमानाभ्यः स्वाहा कूप्याभ्यः स्वाहा सूद्याभ्यः स्वाहा धार्याभ्यः स्वाहाऽर्णवाय स्वाहा समुद्राय स्वाहा सरिराय स्वाहा च विधीयते ते सर्वेषां सुखप्रदा जायन्ते ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्नौ सुगन्ध्यादिद्रव्याणि जुहुयुस्ते जलादिशुद्धिकारका भूत्वा पुण्यात्मानो जायन्ते जलशुद्ध्यैव सर्वेषां शुद्धिर्भवतीति वेद्यम् ॥२५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नीत सुगंधी पदार्थ घालतात. जल वगैरे पदार्थांची शुद्धी करतात ते पुण्यात्मेच असतात. जलाच्या शुद्धीनेच सर्व पदार्थांची शुद्धी होते. हे जाणले पाहिजे.