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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (स्वस्तये) सुख के लिए (अस्रवन्तीम्) छिद्रादि दोष वा (अनागसम्) बनावट के दोषों से रहित (शतारित्राम्) अनेकों लङ्गरवाली (सुनावम्) अच्छे बनी नाव पर (आ, रुहेयम्) चढ़ूँ, वैसे इस पर तुम भी चढ़ो ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग बड़ी नावों की अच्छे प्रकार परीक्षा करके और उनमें स्थिर होके समुद्र आदि के पारावार जायें, जिनमें बहुत लङ्गर आदि होवें, वे नावें अत्यन्त उत्तम हों ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(सुनावम्) शोभनां सुनिर्मितां नावम् (आ) (रुहेयम्) (अस्रवन्तीम्) छिद्रादिदोषरहिताम् (अनागसम्) निर्माणदोषरहिताम् (शतारित्राम्) शतमरित्राणि यस्यास्ताम् (स्वस्तये) सुखाय ॥७ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहं स्वस्तयेऽस्रवन्तीमनागसं शतारित्रां सुनावमारुहेयं तथास्यां यूयमप्यारोहत ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या महतीर्नावः सुपरीक्ष्य तासु स्थित्वा समुद्रादिपारावारौ गच्छेयुः। यत्र बहून्यरित्रादीनि स्युस्ता नावोऽतीवोत्तमाः स्युः ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी मोठ्या जहाजाची परीक्षा करून त्यात स्थिरपणे राहून समुद्र पार करावा. ज्या जहाजना पुष्कळ नांगर असतात ती जहाजे अत्यंत उत्तम असतात.