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त्वाम॒द्यऽऋ॑षऽआर्षेयऽऋषीणां नपादवृणीता॒यं यज॑मानो ब॒हुभ्य॒ऽआ सङ्ग॑तेभ्यऽए॒ष मे॑ दे॒वेषु॒ वसु॒ वार्याय॑क्ष्यत॒ऽइति॒ ता या दे॒वा दे॑व॒ दाना॒न्यदु॒स्तान्य॑स्मा॒ऽआ च॒ शास्स्वा च॑ गुरस्वेषि॒तश्च॑ होत॒रसि॑ भद्र॒वाच्या॑य॒ प्रेषि॑तो॒ मानु॑षः सू॒क्तवा॒काय॑ सू॒क्ता ब्रू॑हि ॥६१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒। आ॒र्षे॒य॒। ऋ॒षी॒णा॒म्। न॒पा॒त्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒य॒म्। यज॑मानः। ब॒हुभ्य॒ इति॑ ब॒हुऽभ्यः॑। आ। सङ्ग॑तेभ्यः॒ इति स्ऽग॑तेभ्यः। ए॒षः। मे॒। दे॒वेषु॑। वसु॑। वारि॑। आ। य॒क्ष्य॒ते॑। इति॑। ता। या। दे॒वाः। दे॒व॒। दाना॑नि। अदुः॑। तानि॑। अ॒स्मै॒। आ। च॒। शास्व॑। आ। च॒। गु॒र॒स्व॒। इ॒षि॒तः। च॒। होतः॑ असि॑। भ॒द्र॒वाच्यायेति॑ भद्र॒ऽवाच्या॑य। प्रेषि॑त॒ इति॒ प्रऽइ॑षितः। मानु॑षः। सू॒क्त॒वा॒का॒येति॑ सूक्तऽवा॒काय॑। सू॒क्तेति॑ सुऽउ॒क्ता। ब्रू॒हि॒ ॥६१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:61


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे अपना वर्ताव वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋषे) मन्त्रों के अर्थ जाननेवाले वा हे (आर्षेय) मन्त्रार्थ जाननेवालों में श्रेष्ठ पुरुष ! (ऋषीणाम्) मन्त्रों के अर्थ जाननेवालों के (नपात्) सन्तान (यजमानः) यज्ञ करनेवाला (अयम्) यह (अद्य) आज (बहुभ्यः) बहुत (सङ्गतेभ्यः) योग्य पुरुषों से (त्वाम्) तुझको (आ, अवृणीत) स्वीकार करे (एषः) यह (देवेषु) विद्वानों में (मे) मेरे (वसु) धन (च) और (वारि) जल को स्वीकार करे। हे (देव) विद्वन् ! जो (आयक्ष्यते) सब ओर से सङ्गत किया जाता (च) और (देवाः) विद्वान् जन (या) जिन (दानानि) देने योग्य पदार्थों को (अदुः) देते हैं (तानि) उन सबों को (अस्मै) इस यज्ञ करनेवाले के लिए (आ, शास्व) अच्छे प्रकार कहो और (प्रेषितः) पढ़ाया हुआ तू (आ, गुरस्व) अच्छे प्रकार उद्यम कर (च) और हे (होतः) देने हारे ! (इषितः) सब का चाहा हुआ (मानुषः) तू (भद्रवाच्याय) जिस के लिए अच्छा कहना होता और (सूक्तवाकाय) जिस के वचनों में अच्छे कथन अच्छे व्याख्यान हैं, उस भद्रपुरुष के लिए (सूक्ता) अच्छी बोलचाल (ब्रूहि) बोलो (इति) इस कारण कि उक्त प्रकार से (ता) उन उत्तम पदार्थों को पाये हुए (असि) होते हो ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बहुत विद्वानों से अति उत्तम विद्वान् को स्वीकार कर वेदादि शास्त्रों की विद्या को पढ़कर महर्षि होवें, वे दूसरों को पढ़ा सकें और जो देनेवाले उद्यमी होवें, वे विद्या को स्वीकार कर जो अविद्वान् हैं, उन पर दया कर विद्याग्रहण के लिए रोष से उन मूर्खों को ताड़ना दें और उन्हें अच्छे सभ्य करें, वे इस संसार में सत्कार करने योग्य हैं ॥६१ ॥ इस अध्याय में वरुण अग्नि विद्वान् राजा प्रजा शिल्प अर्थात् कारीगरी वाणी घर अश्विन् शब्द के अर्थ ऋतु होता आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ का पिछले अध्याय में कहे अर्थ के साथ मेल है, यह जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमन्महाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते यजुर्वेदभाष्ये एकविंशोऽध्यायः समाप्तिमगात् ॥२१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(त्वाम्) (अद्य) (ऋषे) मन्त्रार्थवित् (आर्षेय) ऋषिषु साधुस्तत्संबुद्धौ। अत्र छान्दसो ढक्। (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् (नपात्) अपत्यम् (अवृणीत) वृणोतु (अयम्) (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (बहुभ्यः) (आ) (सङ्गतेभ्यः) योगेभ्यः (एषः) (मे) मम (देवेषु) विद्वत्सु (वसु) धनम् (वारि) जलम् (आ) (यक्ष्यते) (इति) (ता) तानि (या) यानि (देवाः) विद्वांसः (देव) विद्वन् (दानानि) दातव्यानि (अदुः) ददति (तानि) (अस्मै) (आ) (च) (शास्स्व) शिक्ष (आ) (च) (गुरस्व) उद्यमस्व (इषितः) इष्टः (च) (होतः) (असि) भव (भद्रवाच्याय) भद्रं वाच्यं यस्मै तस्मै (प्रेषितः) प्रेरितः (मानुषः) मनुष्यः (सूक्तवाकाय) सूक्तानि वाकेषु यस्य तस्मै (सूक्ता) सुष्ठु वक्तव्यानि (ब्रूहि) ॥६१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ऋषे आर्षेय ! ऋषीणां नपाद् यजमानोऽयमद्य बहुभ्यः सङ्गतेभ्यस्त्वामावृणीतैष देवेषु मे वसु वारि चावृणीत। हे देव ! य आयक्ष्यते देवा या यानि दानान्यदुस्तानि चास्मै आशास्स्व प्रेषितः सन्नागुरस्व च। हे होतरिषितो मानुषो भद्रवाच्याय सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहीति ता प्राप्तवांश्चासि ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या बहूनां विदुषां सकाशाद् विद्वांसं वृत्वा वेदादिविद्या अधीत्य महर्षयो भवेयुस्तेऽन्यानध्यापयितुं शक्नुयुः। ये च दातार उद्यमिनः स्युस्ते विद्यां वृत्वा अविदुषामुपरि दयां कृत्वा विद्याग्रहणाय रोषेण संताड्यैतान् सुसभ्यान् कुर्युस्तेऽत्र सत्कर्त्तव्याः स्युरिति ॥६१ ॥ अत्र वरुणाग्निविद्वद्राजप्रजाशिल्पवाग्गृहाश्व्यृतुहोत्रादिगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अत्यंत विद्वानांमधून उत्तम विद्वानांचा स्वीकार करून वेद इत्यादी शास्रांचे अध्ययन करून महानऋषी बनतात ते इतरांना शिकवू शकतात. उद्यमी लोकांनी अविद्वानांवर दया करून विद्याग्रहण करण्यासाठी क्रोधपूर्वक त्यांना ताडना देऊन का होईना विद्या प्राप्त करावयास लावावी व सभ्य बनवावे. असे लोक या जगात सत्कार करण्यायोग्य असतात.