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सु॒त्रामा॑णं पृथि॒वीं द्याम॑ने॒हस॑ꣳ सु॒शर्मा॑ण॒मदि॑तिꣳ सु॒प्रणी॑तिम्। दै॒वीं नाव॑ꣳ स्वरि॒त्रामना॑गस॒मस्र॑वन्ती॒मा रु॑हेमा स्व॒स्तये॑ ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। अ॒ने॒हस॑म्। सु॒शर्म्मा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽशर्मा॑णम्। अदि॑तिम्। सु॒प्रणी॑तिम्। सु॒प्रनी॑ति॒मिति॑ सु॒ऽप्रनी॑तिम्। दैवी॑म्। नाव॑म्। स्व॒रि॒त्रामिति॑ सुऽअरि॒त्राम्। अना॑गसम्। अस्र॑वन्तीम्। आ। रु॒हे॒म॒। स्व॒स्तये॑ ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब जलयान विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिल्पि जनो ! जैसे हम (स्वस्तये) सुख के लिए (सुत्रामाणम्) अच्छे रक्षण आदि से युक्त (पृथिवीम्) विस्तार और (द्याम्) शुभ प्रकाशवाली (अनेहसम्) अहिंसनीय (सुशर्माणम्) जिस में सुशोभित घर विद्यमान उस (अदितिम्) अखण्डित (सुप्रणीतिम्) बहुत राजा और प्रजाजनों की पूर्ण नीति से युक्त (स्वरित्राम्) वा जिस में बल्ली पर बल्ली लगी हैं, उस (अनागसम्) अपराधरहित और (अस्रवन्तीम्) छिद्ररहित (दैवीम्) विद्वान् पुरुषों की (नावम्) प्रेरणा करने हारी नाव पर (आ, रुहेम) चढ़ते हैं, वैसे तुम लोग भी चढ़ो ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस में बहुत घर, बहुत साधन, बहुत रक्षा करने हारे, अनेक प्रकार का प्रकाश और बहुत विद्वान् हों उस छिद्र रहित बड़ी नाव में स्थित होके समुद्र आदि जल के स्थानों में पारावार देशान्तर और द्वीपान्तर में जा आ के भूगोल में स्थित देश और द्वीपों को जान के लक्ष्मीवान् होवें ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जलयानविषयमाह ॥

अन्वय:

(सुत्रामाणम्) शोभनानि त्रामाणि रक्षणादीनि यस्यास्ताम् (पृथिवीम्) विस्तीर्णाम् (द्याम्) सुप्रकाशाम् (अनेहसम्) अहन्तव्याम्। नञि हन एह च ॥ उणा०४.२२४ ॥ (सुशर्माणम्) सुशोभितगृहाम् (अदितिम्) (सुप्रणीतिम्) बहुराजप्रजाऽखण्डितनीतियुक्ताम् (दैवीम्) देवानामाप्तानां विदुषामियं ताम् (नावम्) नोदयन्ति प्रेरयन्ति यया ताम् (स्वरित्राम्) शोभनान्यरित्राणि यस्यां ताम् (अनागसम्) अविद्यमानाऽपराधाम् (अस्रवन्तीम्) अच्छिद्राम् (आ) (रुहेम) अधितिष्ठेम। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (स्वस्तये) सुखाय ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिल्पिनः ! यथा वयं स्वस्तये सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीं दैवीं नावमारुहेम तथा यूयमिमामारोहत ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यस्यां बहूनि गृहाणि बहूनि साधनानि बहूनि रक्षणानि बहुविधः प्रकाशो बहवो विद्वांसश्च स्युस्तस्यामच्छिद्रायां महत्यां नावि स्थित्वा समुद्रादिजलाशयेष्ववारपारौ देशान्तरद्वीपान्तरौ च गत्वाऽऽगत्य भूगोलस्थान् देशान् द्वीपांश्च विज्ञाय श्रीमन्तो भवन्तु ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्यामध्ये अनेक खोल्या, दरवाजे, अनेक साधने, रक्षक व विद्वान आहेत अशा प्रकाशयुक्त छिद्ररहित जहाजात बसून समुद्रातून देशदेशांतरी, द्वीपद्वीपांतरी जा ये करावी व या भूगोलातील निरनिराळ्या देशात आणि द्वीपात जाऊन धनवान बनावे.