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दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वान् य॑क्षद् यथाय॒थꣳ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑ वा॒चा वा॒चꣳ सर॑स्वतीम॒ग्निꣳ सोम॑ स्विष्ट॒कृत्स्वि॑ष्ट॒ऽइन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सवि॒ता वरु॑णो भि॒षगि॒ष्टो दे॒वो वन॒स्पतिः॒ स्वि᳖ष्टा दे॒वाऽआ॑ज्य॒पाः स्वि॑ष्टोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॒ होता॑ हो॒त्रे स्वि॑ष्ट॒कृद् यशो॒ न दध॑दिन्द्रि॒यमूर्ज॒मप॑चिति स्व॒धां व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वान् य॒क्ष॒त्। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। होता॑रौ। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। वा॒चा। वाच॑म्। सर॑स्वतीम्। अ॒ग्निम्। सोम॑म्। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भि॒षक्। इ॒ष्टः। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। स्वि॑ष्टा॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टाः। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑। होता॑। हो॒त्रे। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। यशः॑। न। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒यम्। ऊर्ज॑म्। अप॑चिति॒मित्यप॑ऽचितिम्। स्व॒धाम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (वसुधेयस्य) संसार के बीच में (वसुवने) ऐश्वर्य को सेवनेवाले सज्जन मनुष्य के लिए (स्विष्टकृत्) सुन्दर चाहे हुए सुख का करने हारा (देवः) दिव्य सुन्दर (अग्निः) आग (देवान्) उत्तम गुण-कर्म-स्वभावोंवाले पृथिवी आदि को (यथायथम्) यथायोग्य (यक्षत्) प्राप्त हो वा जैसे (होतारा) पदार्थों के ग्रहण करने हारे (अश्विना) पवन और बिजुलीरूप अग्नि (इन्द्रम्) सूर्य (वाचा) वाणी से (सरस्वतीम्) विशेष ज्ञानयुक्त (वाचम्) वाणी से (अग्निम्) अग्नि (सोमम्) और चन्द्रमा को यथायोग्य चलाते हैं वा जैसे (स्विष्टकृत्) अच्छे सुख का करनेवाला (स्विष्टः) सुन्दर और सब का चाहा हुआ (सुत्रामा) भलीभाँति पालने हारा (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त राजा (सविता) सूर्य (वरुणः) जल का समुदाय (भिषक्) रोगों का विनाश करने हारा वैद्य (इष्टः) सङ्ग करने योग्य (देवः) दिव्यस्वभाववाला (वनस्पतिः) पीपल आदि (स्विष्टाः) सुन्दर चाहा हुआ सुख जिनसे होवे (आज्यपाः) पीने योग्य रस को पीने हारे (देवाः) दिव्यस्वरूप विद्वान् (अग्निना) बिजुली के साथ (स्विष्टः) (होता) देनेवाला कि जिससे सुन्दर चाहा हुआ काम हो (स्विष्टकृत्) उत्तम चाहे हुए काम को करनेवाला (अग्निः) अग्नि (होत्रे) देनेवाले के लिए (यशः) कीर्ति करने हारे धन के (न) समान (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न कान आदि इन्द्रियाँ (ऊर्जम्) बल (अपचितिम्) सत्कार और (स्वधाम्) अन्न को (दधत्) प्रत्येक को धारण करे वा जैसे उन उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की सङ्गति किया कर ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के बनाये हुए इस मन्त्र में कहे यज्ञ आदि पदार्थों को विद्या से उपयोग के लिए धारण करते हैं, वे सुन्दर चाहे हुए सुखों को पाते हैं ॥५८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) दिव्यः (अग्निः) पावकः (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवान्) दिव्यगुणकर्मस्वभावान् पृथिव्यादीन् (यक्षत्) यजेत् संगच्छेत् (यथायथम्) यथायोग्यम् (होतारौ) आदातारौ (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (अश्विना) वायुविद्युतौ (वाचा) वाण्या (वाचम्) वाणीम् (सरस्वतीम्) विज्ञानयुक्ताम् (अग्निम्) पावकम् (सोमम्) चन्द्रम् (स्विष्टकृत्) सुष्ठु सुखकारी (स्विष्टः) शोभनश्चासाविष्टश्च सः (इन्द्रः) परमेश्वर्ययुक्तो राजा (सुत्रामा) सुष्ठु पालकः (सविता) सूर्य्यः (वरुणः) जलसमुदायः (भिषक्) रोगविनाशकः (इष्टः) सङ्गन्तुमर्हः (देवः) दिव्यस्वभावः (वनस्पतिः) पिप्पलादिः (स्विष्टाः) शोभनमिष्टं येभ्यस्ते (देवाः) दिव्यस्वरूपाः (आज्यपाः) य आज्यं पातुमर्हं रसं पिबन्ति ते (स्विष्टः) शोभनमिष्टं यस्मात्सः (अग्निः) वह्निः (अग्निना) विद्युता (होता) दाता (होत्रे) दात्रे (स्विष्टकृत्) शोभनेष्टकारी (यशः) कीर्तिकरं धनम् (न) इव (दधत्) धरेत् (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य लिङ्गं श्रोत्रादि (ऊर्जम्) बलम् (अपचितिम्) सत्कृतिम् (स्वधाम्) अन्नम् (वसुवने) ऐश्वर्य्यसेवकाय (वसुधेयस्य) संसारस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा वसुधेयस्य वसुवने स्विष्टकृद्देवोऽग्निर्देवान् यथायथं यक्षद् यथा होतारावश्विनेन्द्रं वाचा सरस्वतीं वाचमग्निं सोमं च यथायथं गमयतो यथा स्विष्टकृत्स्विष्टः सुत्रामेन्द्रः सविता वरुणो भिषगिष्टो देवो वनस्पतिः स्विष्टा आज्यपा देवा अग्निना स्विष्टो होता स्विष्टकृदग्निर्होत्रे यशो नेन्द्रियमूर्जमपचितिं स्वधां यथायथं दधद् यथैतानेतानि व्यन्तु तथा यथायथं यज ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ईश्वरनिर्मितानेतन्मन्त्रोक्तयज्ञादीन् पदार्थान् विद्ययोपयोगाय दधति, ते स्विष्टानि सुखानि लभन्ते ॥५८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे ईश्वराने निर्माण केलेल्या, या मंत्रात सांगितल्याप्रमाणे (अग्नी, सूर्य, चंद्र, विद्यूत, वायू, जल, ज्ञानयुक्त वाणी, वैद्य, अन्न इत्यादी) यज्ञीय पदार्थांचा उपयोग करून घेतात ती इच्छित सुख प्राप्त करतात.