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दे॒वं ब॒र्हिर्वारि॑तीनामध्व॒रे स्ती॒र्णम॒श्विभ्या॒मूर्णम्रदाः॒ सर॑स्वत्या स्यो॒नमि॑न्द्र ते॒ सदः॑। ई॒शायै॑ म॒न्युꣳ राजा॑नं ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वम्। ब॒र्हिः। वारि॑तीना॑म्। अ॒ध्व॒रे। स्ती॒र्णम्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। ऊर्ण॑म्रदा॒ऽइत्यूर्ण॑ऽम्रदाः। सर॑स्वत्या। स्यो॒नम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। सदः॑। ई॒शायै॑। म॒न्युम्। राजा॑नम्। ब॒र्हिषा॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अपने इन्द्रिय के स्वामी जीव ! जिस (ते) तेरा (सरस्वत्या) उत्तम वाणी के साथ (स्योनम्) सुख और (सदः) जिस में बैठते वह नाव आदि यान है और जैसे (ऊर्णम्रदाः) ढाँपनेवाले पदार्थों से शिल्प की वस्तुओं को मीजते हुए विद्वान् जन (अश्विभ्याम्) पवन और बिजुली से (अध्वरे) न विनाश करने योग्य शिल्पयज्ञ में (वारितीनाम्) जिन की जल में चाल है, उन पदार्थों के (स्तीर्णम्) ढाँपनेवाले (देवम्) दिव्य (बर्हिः) अन्तरिक्ष को वा (ईशायै) जिस क्रिया से ऐश्वर्य को मनुष्य प्राप्त होता, उस के लिए (मन्युम्) विचार अर्थात् सब पदार्थों के गुण-दोष और उन की क्रिया सोचने के (राजानम्) प्रकाशमान राजा के समान वा (बर्हिषा) अन्तरिक्ष से (वसुधेयस्य) पृथिवी आदि आधार के बीच (वसुवने) पृथिवी आदि लोकों की सेवा करनेहारे जीव के लिए (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें और इन को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू सब पदार्थों की (यज) सङ्गति किया कर ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। यदि मनुष्य आकाश के समान निष्कम्प निडर आनन्द देने हारे एकान्त स्थानयुक्त और जिनकी आज्ञा भङ्ग न हो ऐसे पुरुषार्थी हों, वे इस संसार के बीच धनवान् क्यों न हों? ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवम्) दिव्यम् (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (वारितीनाम्) वारिणी जले इतिर्गतिर्येषां तेषाम् (अध्वरे) अहिंसनीये यज्ञे (स्तीर्णम्) आच्छादकम् (अश्विभ्याम्) वायुविद्युद्भ्याम् (ऊर्णम्रदाः) य ऊर्णैराच्छादकैर्मृदन्ते ते (सरस्वत्या) उत्तमवाण्या (स्योनम्) सुखम् (इन्द्र) इन्द्रियस्वामिन् जीव (ते) तव (सदः) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (ईशायै) ययैश्वर्यं प्राप्नोति तस्यै (मन्युम्) माननम् (राजानम्) राजमानम् (बर्हिषा) अन्तरिक्षेण (दधुः) (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) पृथिव्यादिसेवकाय (वसुधेयस्य) पृथिव्याद्याधारस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यस्य ते सरस्वत्या सह स्योनं सदोऽस्ति यथोर्णम्रदा अश्विभ्यामध्वरे वारितीनां स्तीर्णं देवं बर्हिरीशायै मत्युं राजानमिव बर्हिषा वसुधेयस्य वसुवन इन्द्रियं दधुरेतानि व्यन्तु तथा त्वं यज ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि मनुष्या आकाशवदक्षोभा आनन्दप्रदा एकान्तप्रासादा अभङ्गाज्ञाः पुरुषार्थिनोऽभविष्यँस्तर्ह्यस्य संसारस्य मध्ये श्रीमन्तः कुतो नाभविष्यन् ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जर माणसे आकाशाप्रमाणे स्थिर, निर्भय, आनंदी, एकांतवासी व ज्यांची कुणी अवज्ञा करणार नाही, असे पुरुषार्थी असतील तर या जगात ते धनवान का होणार नाहीत?