वांछित मन्त्र चुनें

दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णोऽअ॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या सुपिप्प॒लऽइन्द्रा॑य पच्यते॒ मधु॑। ओजो॒ न जू॒ति॑र्ऋ॑ष॒भो न भामं॒ वन॒स्पति॑र्नो॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यवर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्णः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्या। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। इन्द्रा॑य। प॒च्य॒ते॒। मधु॑। ओजः॑। न। जू॒तिः। ऋ॒ष॒भः। न। भाम॑म्। वन॒स्पतिः॑। नः॒। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:56


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (अश्विभ्याम्) जल और बिजुली रूप आग से (देवैः) प्रकाश करनेवाले गुणों के साथ (देवः) प्रकाशमान (हिरण्यवर्णः) तेजःस्वरूप (वनस्पतिः) किरणों की रक्षा करनेवाला सूर्यलोक वा (सरस्वत्या) बढ़ती हुई नीति के साथ (सुपिप्पलः) सुन्दर फलोंवाला पीपल आदि वृक्ष (इन्द्राय) प्राणी के लिए (मधु) मीठा फल जैसे (पच्यते) पके वैसे पकता और सिद्ध होता वा (जूतिः) वेग (ओजः) जल को (न) जैसे (भामम्) तथा क्रोध को (ऋषभः) बलवान् प्राणी के (न) समान (वनस्पतिः) वट वृक्ष आदि (वसुधेयस्य) सब के आधार संसार के बीच (नः) हम लोगों के लिए (वसुवने) वा धन चाहनेवाले के लिए (इन्द्रियाणि) धनों को (दधत्) धारण कर रहा है, जैसे इन सब उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) व्याप्त हों, वैसे तू सब व्यवहारों की (यज) सङ्गति किया कर ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम जैसे सूर्य वर्षा से और नदी अपने जल से वृक्षों की भलीभाँति रक्षा कर सब ओर से मीठे-मीठे फलों को उत्पन्न कराती है, वैसे सब के अर्थ सब वस्तु उत्पन्न करो और जैसे धार्मिक राजा दुष्ट पर क्रोध करता, वैसे दुष्टों के प्रति अप्रीति कर अच्छे उत्तम जनों में प्रेम को धारण करो ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(देवः) द्योतमानः (देवैः) प्रकाशकैः (वनस्पतिः) रश्मिपालकः (हिरण्यवर्णः) तेजःस्वरूपः (अश्विभ्याम्) जलाग्निभ्याम् (सरस्वत्या) गतिमत्या नीत्या (सुपिप्पलः) शोभनानि पिप्पलानि फलानि यस्य सः (इन्द्राय) जीवाय (पच्यते) (मधु) मधुरं फलम् (ओजः) जलम् (न) इव (जूतिः) वेगः (ऋषभः) बलिष्ठः (न) इव (भामम्) क्रोधम् (वनस्पतिः) वटादिः (नः) अस्मभ्यम् (दधत्) दधाति (इन्द्रियाणि) धनानि (वसुवने) धनेच्छुकाय (वसुधेयस्य) सर्वपदार्थाधारस्य संसारस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथाश्विभ्यां देवैः सह देवो हिरण्यवर्णो वनस्पतिः सरस्वत्या सुपिप्पला इन्द्राय मध्विव पच्यते जूतिरोजो न भाममृषभो न वनस्पतिर्वसुधेयस्य नो वसुवन इन्द्रियाणि दधद्यथैतानेतानि व्यन्तु तथा त्वं यज ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! भवन्तो यथा सूर्यो वृष्ट्या नदी स्वजलेन च वृक्षान् संरक्ष्य मधुराणि फलानि जनयति तथा सर्वार्थं सर्वं वस्तु जनयन्तु यथा च धार्मिको राजा दुष्टाय क्रुध्यति तथा दुष्टान् प्रत्यप्रीतिं कृत्वा श्रेष्ठेषु प्रेम धरन्तु ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! जसे सूर्य पर्जन्यरूपाने व नदी जलरूपाने वृक्षांचे रक्षण करतात व मधुर फळे उत्पन्न करतात. त्याप्रकारे तुम्हीही सर्वांसाठी सर्व वस्तू बनवा व जसा धार्मिक राजा दुष्टांवर क्रोध करतो तसे तुम्हीही दुष्टांवर क्रोध व उत्तम, श्रेष्ठ लोकांवर प्रेम करा.