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दे॒वऽइन्द्रो॒ नरा॒शꣳस॑स्रिवरू॒थः सर॑स्वत्या॒श्विभ्या॑मीयते॒ रथः॑। रेतो॒ न रू॒पम॒मृतं॑ ज॒नित्र॒मिन्द्रा॑य॒ त्व॒ष्टा दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। इन्द्रः॑। नरा॒शꣳसः॑। त्रि॒व॒रू॒थ इति॑ त्रिऽवरू॒थः। सर॑स्वत्या। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। ई॒य॒ते॒। रथः॑। रेतः॑। न। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। ज॒नित्र॑म्। इन्द्रा॑य। त्वष्टा॑। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:55


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (त्रिवरूथः) तीन अर्थात् भूमि, भूमि के नीचे और अन्तरिक्ष में जिस के घर हैं, वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (देवः) विद्वान् (सरस्वत्या) अच्छी शिक्षा की हुई वाणी से (नराशंसः) जो मनुष्यों को भलीभाँति शिक्षा देते हैं, उनको (अश्विभ्याम्) आग और पवन से जैसे (रथः) रमणीय रथ (ईयते) पहुँचाया जाता, वैसे अच्छे मार्ग में पहुँचाता है वा जैसे (त्वष्टा) दुःख का विनाश करने हारा (जनित्रम्) उत्तम सुख उत्पन्न करने हारे (अमृतम्) जल और (रेतः) वीर्य्य के (न) समान (रूपम्) रूप को तथा (वसुधेयस्य) संसार के बीच (वसुवने) धन की सेवा करनेवाले (इन्द्राय) जीव के लिए (इन्द्रियाणि) कान, आँख आदि इन्द्रियों को (दधत्) धारण करे वा जैसे उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की सङ्गति किया कर ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! यदि तुम लोग धर्मसम्बन्धी व्यवहार से धन की इच्छा करो तो जल और आग से चलाये हुए रथ के समान शीघ्र सब सुखों को प्राप्त होओ ॥५५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) विद्वान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (नराशंसः) ये नरानाशंसन्ति तान् (त्रिवरूथः) त्रिषु भूम्यधोन्तरिक्षेषु वरूथानि गृहाणि यस्य सः (सरस्वत्या) सुशिक्षितया वाचा (अश्विभ्याम्) अग्निवायुभ्याम् (ईयते) गम्यते (रथः) यानम् (रेतः) वीर्यम् (न) इव (रूपम्) आकृतिम् (अमृतम्) जलम् (जनित्रम्) जनकम् (इन्द्राय) जीवाय (त्वष्टा) दुःखविच्छेदकः (दधत्) दध्यात् (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि (वसुवने) धनसेविने (वसुधेयस्य) संसारस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा त्रिवरुथ इन्द्रो देवः सरस्वत्या नराशंसोऽश्विभ्यां रथ ईयत इव सन्मार्गे गमयति, यथा वा जनित्रममृतं रेतो न रूपं वसुधेयस्य वसुवन इन्द्रायेन्द्रियाणि त्वष्टा दधद्यथैत एतानि व्यन्तु तथा त्वं यज ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यदि यूयं धर्म्येण व्यवहारेण श्रियं संचिनुयात्, तर्हि जलाग्निभ्यां चालितो रथ इव सद्यः सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात्॥५५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! जर तुम्ही धर्मयुक्त व्यवहराने धन प्राप्त कराल तर जल व अग्नीने चालणाऱ्या रथाप्रमाणे ताबडतोब सुख मिळवाल.