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दे॒वा दे॒वानां॑ भि॒षजा॒ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑। व॒ष॒ट्का॒रैः सर॑स्वती॒ त्विषिं न हृद॑ये म॒तिꣳ होतृ॑भ्यां दधुरिन्द्रि॒यं व॒सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वा। दे॒वाना॑म्। भि॒षजा॑। होता॑रौ। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। व॒ष॒ट्का॒रैरिति॑ वषट्ऽका॒रैः। सर॑स्वती। त्विषि॑म्। न। हृद॑ये। म॒तिम्। होतृ॑भ्या॒मिति॒ होतृ॑ऽभ्याम्। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:53


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! आप लोग जैसे (देवानाम्) सुख देने हारे विद्वानों के बीच (होतारौ) शरीर के सुख देनेवाले (देवा) वैद्यविद्या से प्रकाशमान (भिषजा) वैद्यजन (अश्विना) विद्या में रमते हुए (वषट्कारैः) श्रेष्ठ कामों से (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्य को धारण करें (सरस्वती) प्रशंसित विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त वाणीवाली स्त्री (त्विषिम्) प्रकाश के (न) समान (हृदये) अन्तःकरण में (मतिम्) बुद्धि को धारण करे, वैसे (होतृभ्याम्) देनेवालों के साथ उक्त सद्वैद्य और वाणीयुक्त स्त्री को वा (वसुधेयस्य) कोश के (वसुवने) धन को बाँटनेवाले के लिए (इन्द्रियम्) शुद्ध मन को (दधुः) धारण करें और (व्यन्तु) प्राप्त हों। हे जन ! वैसे तू भी (यज) सब व्यवहारों की सङ्गति किया कर ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वानों में विद्वान्, अच्छे वैद्य श्रेष्ठ क्रिया से सब को नीरोग कर कान्तिमान् धनवान् करते हैं वा जैसे विद्वानों की वाणी विद्यार्थियों के मन में उत्तम ज्ञान की उन्नति करती है, वैसे साधारण मनुष्यों को विद्या और धन इकट्ठे करने चाहिए ॥५३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(देवा) वैद्यविद्यया प्रकाशमानौ (देवानाम्) सुखदातॄणां विदुषां (भिषजा) चिकित्सकौ (होतारौ) सुखस्य दातारौ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (अश्विना) विद्याव्यापिनौ (वषट्कारैः) श्रेष्ठैः कर्मभिः (सरस्वती) प्रशस्तविद्यासुशिक्षायुक्ता वाङ्मती (त्विषिम्) प्रकाशम् (न) इव (हृदये) अन्तःकरणे (मतिम्) (होतृभ्याम्) दातृभ्याम् (दधुः) (इन्द्रियम्) शुद्धं मनः (वसुवने) धनसंविभाजकाय (वसुधेयस्य) कोशस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो ! भवन्तो यथा देवानां होतारौ देवा भिषजाऽश्विना वषट्कारैरिन्द्रं दध्यातां सरस्वती त्विषिं न हृदये मतिं दध्यात्तथा होतृभ्यां सहैता वसुधेयस्य वसुवन इन्द्रियं दधुर्व्यन्तु च। हे मनुष्य ! तथा त्वमपि यज ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्वत्सु विद्वांसौ सद्वैद्यौ सत्क्रियया सर्वानरोगीकृत्य श्रीमतः सम्पादयतो यथा वा विदुषां वाग्विद्यार्थिनां स्वान्ते प्रज्ञामुन्नयति तथाऽन्यैर्विद्याधने संचयनीये ॥५३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा विद्वानांमधील विद्वान व चांगले वैद्य श्रेष्ठ कर्म करून सर्वांना निरोगी, तेजस्वी व धनवान करतात किंवा जशी विद्वानांची वाणी विद्यार्थ्यांच्या मनाला उत्तम ज्ञानाने उन्नत करते तसे साधारण माणसांनीही विद्या व धन मिळवावे.