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दे॒वीऽउ॒षासा॑व॒श्विना॑ सु॒त्रामेन्द्रे॒ सर॑स्वती। बलं॒ न वाच॑मा॒स्य᳖ऽउ॒षाभ्यां॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। उ॒षासौ॑। उषसा॒वित्यु॒षसौ॑। अ॒श्विना॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। इन्द्रे॑। सर॑स्वती। बल॑म्। न। वाच॑म्। आ॒स्ये᳖। उ॒षाभ्या॑म्। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:50


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (देवी) निरन्तर प्रकाश को प्राप्त (उषासौ) सायंकाल और प्रातःकाल की सन्धिवेला वा (सुत्रामा) भलीभाँति रक्षा करनेवाले (सरस्वती) विशेष ज्ञान की हेतु स्त्री (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (वसुवने) धन की सेवा करनेवाले के लिए (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा जाय उस व्यवहारसम्बन्धी (इन्द्रे) उत्तम ऐश्वर्य में (न) जैसे (बलम्) बल को वैसे (आस्ये) मुख में (वाचम्) वाणी को वा (उषाभ्याम्) सायंकाल और प्रातःकाल की वेला से (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें और सब को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की सङ्गति किया कर ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुषार्थी मनुष्य सूर्य-चन्द्रमा सायंकाल और प्रातःकाल की वेला के समान नियम के साथ उत्तम उत्तम यत्न करते हैं तथा सायंकाल और प्रातःकाल की वेला में सोने और आलस्य आदि को छोड़ ईश्वर का ध्यान करते हैं, वे बहुत धन को पाते हैं ॥५० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(देवी) देदीप्यमाने (उषासौ) सायंप्रातः सन्धिवेले अत्रान्येषामपीत्युपधादीर्घः (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (सुत्रामा) सुष्ठु रक्षकौ (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (सरस्वती) विज्ञाननिमित्ता स्त्री (बलम्) (न) इव (वाचम्) (आस्ये) मुखे (उषाभ्याम्) उभयवेलाभ्याम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः (दधुः) दध्युः (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनसेविने (वसुधेयस्य) धनाधारस्य (व्यन्तु) (यज) ॥५० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा देवी उषासौ सुत्रामा सरस्वत्यश्विना वसुवने वसुधेयस्येन्द्रे बलं नास्ये वाचमुषाभ्यमिन्द्रियं च दधुः सर्वान् व्यन्तु च तथा त्वं यज ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषार्थिनो मनुष्याः सूर्यचन्द्रसन्ध्यावन्नियमेन प्रयतन्ते, सन्धिवेलायां शयनाऽऽलस्यादिकं विहायेश्वरस्य ध्यानं कुर्वन्ति ते पुष्कलां श्रियं प्राप्नुवन्ति ॥५० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी पुरुषार्थी माणसे सूर्य, चंद्र, प्रातःकाळी सायंकाळ या वेळेप्रमाणे नियमात राहून प्रयत्न करत असतात, तसेच सकाळी व संध्याकाळी निद्रा आणि आळस सोडून ईश्वराचे ध्यान करतात त्यांना खूप धन प्राप्त होते.