वांछित मन्त्र चुनें

होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। अ॒भि। हि। पि॒ष्टत॑म॒येति॑ पि॒ष्टऽत॑मया। रभि॑ष्ठया। र॒श॒नया॑। अधि॑त। यत्र॑। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। स॒वि॒तुः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑ꣳसि। यत्र॑। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। तत्र॑। ए॒तान्। प्र॒स्तुत्ये॒वेति॑ प्र॒ऽस्तुत्य॑ऽइव। उ॒प॒स्तुत्ये॒वेत्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑इव। उपाव॑स्रक्ष॒दित्यु॑प॒ऽअव॑स्रक्षत्। रभी॑यसऽइ॒वेति॒ रभी॑यसःइव। कृ॒त्वी। कर॑त्। ए॒वम्। देवः॑। वन॒स्पतिः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:46


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) देनेहारे ! जैसे (होता) लेने हारा सत्पुरुष (पिष्टतमया) अति पिसी हुई (रभिष्ठया) अत्यन्त शीघ्रता से बढ़नेवाली वा जिस का बहुत प्रकार से प्रारम्भ होता है, उस वस्तु और (रशनया) रश्मि के साथ (यत्र) जहाँ (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के सम्बन्ध से पालित (छागस्य) घास को छेदने-खाने हारे बकरा आदि पशु और (हविषः) देने योग्य पदार्थ सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहाँ (सरस्वत्याः) नदी (मेषस्य) मेंढ़ा और (हविषः) ग्रहण करने पदार्थ-सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त जन के (ऋषभस्य) प्राप्त होने और (हविषः) देने योग्य पदार्थ के (प्रिया) प्यारे मन के हरनेवाले (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (अग्नेः) प्रसिद्ध और बिजुलीरूप अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (सोमस्य) ओषधियों के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (सुत्राम्णः) भलीभाँति रक्षा करनेवाले (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त उत्तम पुरुष के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (सवितुः) सब को प्रेरणा देने हारे पवन के (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहाँ (वरुणस्य) श्रेष्ठ पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहाँ (वनस्पतेः) वट आदि वृक्षों के (प्रिया) उत्तम (पाथांसि) अन्न अर्थात् उन के पीने के जल वा (यत्र) जहाँ (आज्यपानाम्) गति अर्थात् अपनी कक्षा में घूमने से जीवों के पालनेवाले (देवानाम्) पृथिवी आदि दिव्य लोकों का (प्रिया) उत्तम (धामानि) उत्पन्न होना उनके ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहाँ (होतुः) उत्तम सुख देने और (अग्नेः) विद्या से प्रकाशमान होने हारे अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम हैं, (तत्र) वहाँ (एतान्) इन उक्त पदार्थों की (प्रस्तुत्येव) प्रकरण से अर्थात् समय-समय से चाहना सी कर और (उपस्तुत्येव) उनकी समीप प्रशंसा सी करके (उपावस्रक्षत्) उनको गुण-कर्म-स्वभाव से यथायोग्य कामों में उपार्जन करे अर्थात् उक्त पदार्थों का संचय करे (रभीयस इव) बहुत प्रकार से अतीव आरम्भ के समान (कृत्वी) करके कार्य्यों के उपयोग में लावे (एवम्) और उस प्रकार (करत्) उनका व्यवहार करे वा जैसे (वनस्पतिः) सूर्य आदि लोकों की किरणों की पालना करने हारा और (देवः) दिव्यगुणयुक्त अग्नि (हविः) संस्कार किये अर्थात् उत्तमता से बनाये हुए पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करे और (हि) निश्चय से (वनस्पतिम्) वट आदि वृक्षों को (अभि, यक्षत्) सब ओर से पहुँचे अर्थात् बिजुली रूप से प्राप्त हो और (अधित) उनका धारण करे, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की सङ्गति किया कर ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के उत्पन्न किये हुए पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों को जान कर इन को कार्य की सिद्धि के लिए भलीभाँति युक्त करें तो वे अपने चाहे हुए सुखों को प्राप्त होवें ॥४६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) (वनस्पतिम्) वटादिकम् (अभि) (हि) किल (पिष्टतमया) (रभिष्ठया) (रशनया) रश्मिना (अधित) दध्यात् (यत्र) (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (छागस्य) छेदकस्य (हविषः) दातुमर्हस्य (प्रिया) कमनीयानि (धामानि) जन्मस्थाननामानि (यत्र) (सरस्वत्याः) नद्याः सरस्वतीति नदीनामसु पठितम् ॥ निघं०१.१३ ॥ (मेषस्य) अवेः (हविषः) आदातुमर्हस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्तस्य (ऋषभस्य) प्राप्तुं योग्यस्य (हविषः) दातुं योग्यस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (अग्नेः) पावकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (सोमस्य) ओषधिगणस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्तस्य (सुत्राम्णः) सुष्ठु रक्षकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (सवितुः) प्रेरकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (प्रिया) (धामानि) (वनस्पतेः) वटादेः (प्रिया) (पाथांसि) अन्नानि (यत्र) (देवानाम्) पृथिव्यादीनां दिव्यानाम् (आज्यपानाम्) गत्या पालकानाम् (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (अग्नेः) विद्यया प्रकाशमानस्य (होतुः) दातुः (प्रिया) (धामानि) (तत्र) (एतान्) (प्रस्तुत्येव) प्रकरणेन संश्लाघ्येव (उपस्तुत्येव) समीपेन स्तुत्येव (उपावस्रक्षत्) उपावसृजेत् (रभीयस इव) अतिशयेनारब्धस्येव (कृत्वी) कृत्वा (करत्) कुर्यात् (एवम्) (देवः) दिव्यगुणः (वनस्पतिः) रश्मिपालकोऽग्निः (जुषताम्) सेवताम् (हविः) संस्कृतमन्नादिकम् (होतः) (यज) ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता पिष्टतमया रभिष्ठया रशनया यत्राऽश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामानि यत्र सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्यर्षभस्य हविषः प्रिया धामानि यत्राग्नेः प्रिया धामानि यत्र सोमस्य प्रिया धामानि यत्र सुत्राम्ण इन्द्रस्य प्रिया धामानि यत्र सवितुः प्रिया धामानि यत्र वरुणस्य प्रिया धामानि यत्र वनस्पतेः प्रिया पाथांसि यत्राज्यपानां देवानां प्रिया धामानि यत्र होतुरग्नेः प्रिया धामानि सन्ति तत्रैतान् प्रस्तुत्येवोपस्तुत्येवोपावस्रक्षद् रभीयस इव कृत्वी कार्य्येषूपयुञ्जीतैवं करद्यथा वनस्पतिर्देवो हविर्जुषतां हि वनस्पतिमभियक्षदधित तथा त्वं यज ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि मनुष्या ईश्वरेण सृष्टानां पदार्थानां गुणकर्मस्वभावान् विदित्वैतान् कार्य्यसिद्धये प्रयुञ्जीरँस्तर्हि स्वेष्टानि सुखानि लभेरन् ॥४६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ईश्वराने निर्माण केलेल्या पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून कार्यसिद्धीसाठी ते व्यवहारात आणतात त्यांनी इच्छित सुख प्राप्त होते.