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होता॑ यक्षद॒ग्नि स्वाहाज्य॑स्य स्तो॒काना॒ स्वाहा॒ मेद॑सां॒ पृथ॒क्स्वाहा॒ छाग॑म॒श्विभ्या॒ स्वाहा॒॑ मे॒षꣳ सर॑स्वत्यै॒ स्वाह॑ऽऋष॒भमिन्द्रा॑य सि॒ꣳहाय॒ सह॑सऽइन्द्रि॒यꣳ स्वाहा॒ग्निं न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॒ सोम॑मिन्द्रि॒यꣳ स्वाहेन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णꣳ सवि॒तारं॒ वरु॑णं भि॒षजां॒ पति॒ꣳ स्वाहा॒ वनस्पतिं॑ प्रि॒यं पाथो॒ न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॑ दे॒वाऽआ॑ज्य॒पा जु॑षा॒णोऽअ॒ग्निर्भे॑ष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वाहा॑। आज्य॑स्य। स्तो॒काना॑म्। स्वाहा॑। मेद॑साम्। पृथ॑क्। स्वाहा॑। छाग॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। स्वाहा॑। मे॒षम्। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। ऋ॒ष॒भम्। इन्द्रा॑य। सि॒ꣳहाय॑। सह॑से। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। सोम॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। स॒वि॒तार॑म्। वरु॑णम्। भि॒षजा॑म्। पति॑म्। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑ प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) देने हारे जन ! जैसे (होता) ग्रहण करने हारा (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य घी की (स्वाहा) उत्तम क्रिया से वा (स्तोकानाम्) स्वल्प (मेदसाम्) स्निग्ध पदार्थों की (स्वाहा) अच्छे प्रकार रक्षण क्रिया से (अग्निम्) को (पृथक्) भिन्न-भिन्न (स्वाहा) उत्तम रीति से (अश्विभ्याम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करनेवालों से (छागम्) दुःख के छेदन करने को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (मेषम्) सेचन करने हारे को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए (स्वाहा) परमोत्तम क्रिया से (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (सहसे) बल (सिंहाय) और जो शत्रुओं का हननकर्त्ता उस के लिए (स्वाहा) उत्तम वाणी से (इन्द्रियम्) धन को (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (अग्निम्) पावक के (न) समान (भेषजम्) औषध (सोमम्) सोमलतादि ओषधिसमूह (इन्द्रियम्) वा मन आदि इन्द्रियों को (स्वाहा) शान्ति आदि क्रिया और विद्या से (सुत्रामाणम्) अच्छे प्रकार रक्षक (इन्द्रम्) सेनापति को (भिषजाम्) वैद्यों के (पतिम्) पालन करने हारे (सवितारम्) ऐश्वर्य के कर्त्ता (वरुणम्) श्रेष्ठ पुरुष को (स्वाहा) निदान आदि विद्या से (वनस्पतिम्) वनों के पालन करने हारे को (स्वाहा) उत्तम विद्या से (प्रियम्) प्रीति करने योग्य (पाथः) पालन करनेवाले अन्न के (न) समान (भेषजम्) उत्तम औषध को (यक्षत्) सङ्गत करे वा जैसे (आज्यपाः) विज्ञान के पालन करनेहारे (देवाः) विद्वान् लोग और (भेषजम्) चिकित्सा करने योग्य को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (अग्निः) पावक के समान तेजस्वी जन सङ्गत करे, वैसे जो (परिस्रुता) चारों ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (पयः) दूध (सोमः) औषधियों का समूह (घृतम्) घी (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उन के साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन किया कर ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य क्रिया, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सब के उपकार को करते हैं, वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) यजेत् (अग्निम्) पावकम् (स्वाहा) सुष्ठु क्रियया (आज्यस्य) प्राप्तुमर्हस्य (स्तोकानाम्) स्वल्पानाम् (स्वाहा) सुष्ठु रक्षणक्रियया (मेदसाम्) स्निग्धानाम् (पृथक्) (स्वाहा) उत्तमरीत्या (छागम्) दुःखं छेत्तुमर्हम् (अश्विभ्याम्) राज्यस्वामिपशुपालाभ्याम् (स्वाहा) (मेषम्) सेचनकर्त्तारम् (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्तायै वाचे (स्वाहा) परमोत्तमया क्रियया (ऋषभम्) श्रेष्ठं पुरुषार्थम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (सिंहाय) यो हिनस्ति तस्मै (सहसे) बलाय (इन्द्रियम्) धनम् (स्वाहा) शोभनया वाचा (अग्निम्) पावकम् (न) इव (भेषजम्) औषधम् (स्वाहा) उत्तमया क्रियया (सोमम्) सोमलताद्योषधिगणम् (इन्द्रियम्) मनःप्रभृतीन्द्रियमात्रम् (स्वाहा) सुष्ठु शान्तिक्रियया विद्यया च (इन्द्रम्) सेनेशम् (सुत्रामाणम्) सुष्ठु रक्षकम् (सवितारम्) ऐश्वर्य्यकारकम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (भिषजाम्) वैद्यानाम् (पतिम्) पालकम् (स्वाहा) निदानादिविद्यया (वनस्पतिम्) वनानां पालकम् (प्रियम्) कमनीयम् (पाथः) पालकमन्नम् (न) इव (भेषजम्) औषधम् (स्वाहा) सुष्ठु विद्यया (देवाः) विद्वांसः (आज्यपाः) य आज्यं विज्ञानं पान्ति रक्षन्ति ते (जुषाणः) सेवमानः (अग्निः) पावक इव प्रदीप्तः (भेषजम्) चिकित्सनीयम् (पयः) उदकम् (सोमः) ओषधिगणः (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) दातः (यज) ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होताऽऽज्यस्य स्वाहा स्तोकानां मेदसां स्वाहाऽग्निं पृथक्स्वाहाश्विभ्यां छागं सरस्वत्यै स्वाहा मेषमिन्द्राय स्वाहर्षभं सहसे सिंहाय स्वाहेन्द्रियं स्वाहाग्निं न भेषजं सोममिन्द्रियं स्वाहा सुत्रामाणमिन्द्रं भिषजां पतिं सवितारं वरुणं स्वाहा वनस्पतिं स्वाहा प्रियं पाथो न भेषजं यक्षद् यथावाज्यपा देवा भेषजं जुषाणोऽग्निश्च यक्षत्तथा यानि परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या विद्याक्रियाकौशलयत्नैरग्न्यादिविद्यां विज्ञाय गवादीन् पशून् संपाल्य सर्वोपकारं कुर्वन्ति, ते वैद्यवत्प्रजादुःखध्वंसका जायन्ते ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्या व कर्मकुशलतेद्वारे प्रयत्नपूर्वक अग्निविद्या जाणतात, तसेच गाई इत्यादी पशूंचे चांगल्याप्रकारे पालन करून सर्वांवर उपकार करतात ती वैद्याप्रमाणे प्रजेचे दुःख नाहीसे करतात.