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होता यक्षत्सु॒रेत॑समृष॒भं नर्या॑पसं॒ त्वष्टा॑र॒मिन्द्र॑म॒श्विना॑ भि॒षजं॒ न सर॑स्वती॒मोजो॒ न जू॒तिरि॑न्द्रि॒यं वृको॒ न र॑भ॒सो भि॒षग्यशः॒ सुर॑या भेष॒जꣳ श्रि॒या न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒रेत॑स॒मिति॑ सु॒ऽरेत॑सम्। ऋ॒ष॒भम्। नर्या॑पस॒मिति॒ नर्य॑ऽअपसम्। त्वष्टा॑रम्। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। भि॒षज॑म्। न। सर॑स्वतीम्। ओजः॑। न। जू॒तिः। इ॒न्द्रि॒यम्। वृकः॑। न। र॒भ॒सः। भि॒षक्। यशः॑ सुर॑या। भे॒ष॒जम्। श्रि॒या। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) लेने हारे जैसे (होता) ग्रहण करनेवाला (सुरेतसम्) अच्छे पराक्रमी (ऋषभम्) बैल और (नर्यापसम्) मनुष्यों में अच्छे कर्म करने तथा (त्वष्टारम्) दुःख काटनेवाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त जन को (अश्विना) वायु और बिजुली वा (भिषजम्) उत्तम वैद्य के (न) समान (सरस्वतीम्) बहुत विज्ञानयुक्त वाणी को (ओजः) बल के (न) समान (यक्षत्) प्राप्त करे (भिषक्) वैद्य (वृकः) वज्र के (न) समान (जूतिः) वेग (इन्द्रियम्) मन (रभसः) वेग (यशः) धन वा अन्न को (सुरया) जल से (भेषजम्) औषध को (श्रिया) धन के (न) समान क्रिया से (मासरम्) अच्छे पके हुए अन्न को प्राप्त करें, वैसे (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त पुरुषार्थ से (पयः) पीने योग्य रस और (सोमः) ऐश्वर्य (घृतम्) घी और (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वान् लोग ब्रह्मचर्य, धर्म के आचरण, विद्या और सत्संगति आदि से सब सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ से लक्ष्मी को प्राप्त होवें ॥३८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) प्राप्नुयात् (सुरेतसम्) सुष्ठु वीर्यम् (ऋषभम्) बलीवर्दम् (नर्यापसम्) नृषु साध्वपः कर्म यस्य तम् (त्वष्टारम्) दुःखच्छेत्तारम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (अश्विना) वायुविद्युतौ (भिषजम्) वैद्यवरम् (न) इव (सरस्वतीम्) बहुविज्ञानयुक्तां वाचम् (ओजः) बलम् (न) इव (जूतिः) वेगः (इन्द्रियम्) मनः (वृकः) वज्रः। वृक इति वज्रनामसु पठितम् ॥ निघं०२.२० ॥ (न) (रभसः) वेगम्। द्वितीयार्थे प्रथमा। (भिषक्) वैद्यः (यशः) धनमन्नं वा (सुरया) जलेन (भेषजम्) औषधम् (श्रिया) लक्ष्म्या (न) इव (मासरम्) संस्कृतभोज्यमन्नम् (पयः) पातुं योग्यम् (सोमः) ऐश्वर्यम्। (परिस्रुता) सर्वतोऽभिगतेन पुरुषार्थेन (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतस्त्वं यथा होता सुरेतसमृषभं नर्यापसं त्वष्टारमिन्द्रमश्विना भिषजं न सरस्वतीमोजो न यक्षद् भिषग् वृको न जूतिरिन्द्रियं रभसो यशः सुरया भेषजं श्रिया न क्रियया मासरं यक्षत्तया परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु च व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्वांसो ब्रह्मचर्येण धर्माचरणेन विद्यया सत्सङ्गादिना चाऽखिलं सुखं प्राप्नुवन्ति, तथा मनुष्यैः पुरुषार्थेन लक्ष्मी प्राप्तव्या ॥३८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक ब्रह्मचर्य, धमाचे आचरण, विद्या व सत्संग इत्यादींमुळे सुख प्राप्त करतात तसे सर्व माणसांनी पुरुषार्थांने लक्ष्मी प्राप्त करावी.