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होता॑ यक्ष॒द् दैव्या॒ होता॑रा भि॒षजा॒श्विनेन्द्रं॒ न जागृ॑वि॒ दिवा॒ नक्तं॒ न भे॑ष॒जैः शूष॒ꣳ सर॑स्वती भि॒षक्सीसे॑न दु॒हऽइन्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। दैव्या॑। होता॑रा। भि॒षजा॑। अ॒श्विना॑। इन्द्र॑म्। न। जागृ॑वि। दिवा॑। नक्त॑म्। न। भे॒ष॒जैः। शूष॑म्। सर॑स्वती। भि॒षक्। सीसे॑न। दु॒हे॒। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:36


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) देने हारे जन ! जैसे (होता) लेनेहारा (दैव्या) दिव्य गुणवालों में प्राप्त (होतारा) ग्रहण करने और (भिषजा) वैद्य के समान रोग मिटानेवाले (अश्विना) अग्नि और वायु को (इन्द्रम्) बिजुली के (न) समान (यक्षत्) सङ्गत करे वा (दिवा) दिन और (नक्तम्) रात्रि में (जागृवि) जागती अर्थात् काम के सिद्ध करने में अतिचैतन्य (सरस्वती) वैद्यकशास्त्र जाननेवाली उत्तम ज्ञानवती स्त्री और (भिषक्) वैद्य (भेषजैः) जलों और (सीसेन) धनुष के विशेष व्यवहार से (शूषम्) बल के (न) समान (इन्द्रियम्) धन को (दुहे) परिपूर्ण करते हैं, वैसे जो (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (पयः) दुग्ध (सोमः) ओषधिगण (घृतम्) घी (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे विद्वान् लोगो ! जैसे अच्छी वैद्यक-विद्या पढ़ी हुई स्त्री काम सिद्ध करने को दिन-रात उत्तम यत्न करती हैं वा जैसे वैद्य लोग रोगों को मिटाके शरीर का बल बढ़ाते हैं, वैसे रहके सब को आनन्दयुक्त होना चाहिए ॥३६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) दाता (यक्षत्) (दैव्या) देवेषु लब्धौ (होतारा) आदातारौ (भिषजा) वैद्यवद् रोगापहारकौ (अश्विना) अग्निवायू (इन्द्रम्) विद्युतम् (न) इव (जागृवि) जागरूका कार्यसाधनेऽप्रमत्ता। अत्र सुपां सुलुग् [अ०७.१.३९] इति सोर्लोपः। (दिवा) (नक्तम्) (न) (भेषजैः) जलैः (शूषम्) बलम्। शूषमिति बलनामसु पठितम् ॥ निघं०२.९ ॥ (सरस्वती) वैद्यकशास्त्रवित्प्रशस्तज्ञानवती स्त्री (भिषक्) वैद्यः (सीसेन) धनुर्विशेषेण (दुहे) दुग्धे। लट्प्रयोगः। लोपस्त० [अ०७.१.४२] इति तलोपः। (इन्द्रियम्) धनम् (पयः) (सोमः) (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता दैव्या होतारा भिषजाश्विनेन्द्रं न यक्षत्दिवा नक्तं जागृवि सरस्वती भिषग् भेषजैः सीसेन शूषं न इन्द्रियं दुहे तथा यानि परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे विद्वांसः ! यथा सद्वैद्याः स्त्रियः कार्य्याणि साधयितुमहर्निशं प्रयतन्ते तथा वा वैद्या रोगान्निवार्य्य शरीरबलं वर्धयन्ति तथा वर्त्तित्वा सर्वैरानन्दितव्यम् ॥३६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे विद्वानांनो ! जशी उत्तम वैद्या वैद्यक शास्राप्रमाणे रात्रंदिवस काम करण्याचा प्रयत्न करते किंवा जसे वैद्य लोक रोग नष्ट करून शरीराचे बल वाढवितात तसे आचरण करून सर्वांनी आनंदी बनावे.