होता॑ यक्षत्सु॒पेश॑सो॒षे नक्तं॒ दिवा॒श्विना॒ सम॑ञ्जाते॒ सर॑स्वत्या॒ त्विषि॒मिन्द्रे॒ न भे॑ष॒जꣳ श्ये॒नो न रज॑सा हृ॒दा श्रि॒या न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३५ ॥
होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। उ॒षेऽइत्यु॒षे। नक्त॑म्। दिवा॑। अ॒श्विना॑। सम्। अ॒ञ्जा॒ते॒ऽइत्य॑ञ्जाते। सर॑स्वत्या। त्विषि॑म्। इन्द्रे॑। न। भे॒ष॒जम्। श्ये॒नः। न। रज॑सा। हृ॒दा। श्रि॒या। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३५ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(होता) आदाता (यक्षत्) यजेत् (सुपेशसा) सुखरूपे स्त्रियौ (उषे) कामं दहन्त्यौ (नक्तम्) (दिवा) (अश्विना) व्याप्तिमन्तौ सूर्याचन्द्रमसौ (समञ्जाते) सम्यक्प्रकाशयतः (सरस्वत्या) विज्ञानयुक्तया वाचा (त्विषिम्) प्रदीप्तिम् (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति प्राणिनि (न) इव (भेषजम्) जलम् (श्येनः) श्यायति विज्ञापयतीति श्येनो विद्वान् (न) इव (रजसा) लोकैः सह (हृदा) हृदयेन (श्रिया) लक्ष्म्या शोभया वा (न) इव (मासरम्) ओदनम्। उपलक्षणमेतत्तेन सुसंस्कृतमन्नमात्रं गृह्यते (पयः) सर्वौषधरसः (सोमः) सर्वौषधिगणः (परिस्रुता) सर्वतः प्राप्तेन रसेन (घृतम्) उदकम् (मधु) क्षौद्रम् (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३५ ॥