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होता॑ यक्ष॒द् दुरो॒ दिशः॑ कव॒ष्यो᳕ न व्यच॑स्वतीर॒श्विभ्यां॒ न दुरो॒ दिश॒ऽइन्द्रो॒ न रोद॑सी॒ दुघे॑ दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वत्य॒श्विनेन्द्रा॑य भेष॒जꣳ शु॒क्रं न ज्योति॑रिन्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। दुरः॑। दिशः॑। क॒व॒ष्यः᳕। न। व्यच॑स्वतीः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। न। दुरः॑। दिशः॑। इन्द्रः॑। न। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। दुघ॒ऽइति॒ दुघे॑। दु॒हे। धे॒नुः। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। इन्द्रा॑य। भे॒ष॒जम्। शु॒क्रम्। न। ज्योतिः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:34


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) देने हारे जन ! जैसे (होता) लेने हारा (कवष्यः) छिद्रसहित वस्तुओं के (न) समान (दुरः) द्वारों और (व्यचस्वतीः) व्याप्त होनेवाली (दिशः) दिशाओं को वा (अश्विभ्याम्) इन्द्र और अग्नि से जैसे (न) वैसे (दुरः) द्वारों और (दिशः) दिशाओं को वा (इन्द्रः) बिजुली के (न) समान (दुघे) परिपूर्णता करनेवाले (रोदसी) आकाश और पृथिवी के और (धेनुः) गाय के समान (सरस्वती) विज्ञानवाली वाणी (इन्द्राय) जीव के लिए (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (शुक्रम्) वीर्य करनेवाले जल के (न) समान (भेषजम्) औषध तथा (ज्योतिः) प्रकाश करने हारे (इन्द्रियम्) मन आदि को (दुहे) परिपूर्णता के लिए (यक्षत्) सङ्गत करे, वैसे जो (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (पयः) दूध (सोमः) औषधियों का समूह (घृतम्) घी (मधु) और सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन किया कर ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - इस में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य सब दिशाओं के द्वारोंवाले सब ऋतुओं में सुखकारी घर बनावें, वे पूर्ण सुख को प्राप्त होवें। इनके सब प्रकार के उदय के सुख की न्यूनता कभी नहीं होवे ॥३४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) (दुरः) द्वाराणि (दिशः) (कवष्यः) सच्छिद्राः (न) इव (व्यचस्वतीः) (अश्विभ्याम्) इन्द्राग्निभ्याम् (न) इव (दुरः) द्वाराणि (दिशः) (इन्द्रः) विद्युत् (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (दुघे) अत्र वा छन्दसीति केवलादपि कप् प्रत्ययः (दुहे) दोहनाय प्रपूरणाय (धेनुः) धेनुरिव (सरस्वती) विज्ञानवती वाक् (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (इन्द्राय) जीवाय (भेषजम्) औषधम् (शुक्रम्) वीर्य्यकरमुदकम्। शुक्रमित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं०१.१२ ॥ (न) इव (ज्योतिः) प्रकाशकम् (इन्द्रियम्) मन आदि (पयः) दुग्धम् (सोमः) ओषधिगणः (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) दातः (यज) ॥३४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता कवष्यो न दुरो व्यचस्वतीर्दिशोऽश्विभ्यां न दुरो दिश इन्द्रो न दुघे रोदसी धेनुः सरस्वतीन्द्रायाश्विना शुक्रं न भेषजं ज्योतिरिन्द्रियं दुहे यक्षत्तथा यानि परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्याः सर्वदिग्द्वाराणि सर्वर्तुसुखकराणि गृहाणि निर्मिमीरंस्ते पूर्णसुखं प्राप्नुयुः। नैतेषामाभ्युदयिकसुखन्यूनता कदाचिज्जायेत ॥३४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे सर्व दिशांना दरवाजे असणारी व सर्वऋतूमध्ये सुख देणारी अशी सुखदायक घरे बांधतात. त्यांना पूर्ण सुख प्राप्त होते. सर्व प्रकारे त्यांचा उत्कर्ष होतो. त्यांचे सुख कधीच कमी होत नाही.