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होता॑ यक्ष॒न्नरा॒शꣳसं॒ न न॒ग्नहुं॒ पति॒ꣳ सुर॑या भेष॒जं मे॒षः सर॑स्वती भि॒षग्रथो॒ न च॒न्द्र्य᳕श्विनो॑र्व॒पा इन्द्र॑स्य वी॒र्यं᳕ बद॑रैरुप॒वाका॑भिर्भेष॒जं तोक्म॑भिः॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। न॒रा॒शꣳस॑म्। न। न॒ग्नहु॑म्। पतिम्। सुर॑या। भे॒ष॒जम्। मेषः॒। सर॑स्वती। भि॒षक्। रथः॑। न। च॒न्द्री। अश्विनोः॑। व॒पाः। इन्द्र॑स्य। वी॒र्य᳕म्। बद॑रैः। उ॒प॒वाका॑भि॒रित्यु॑प॒ऽवाका॑भिः। भे॒ष॒जम्। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। पयः॑। सोमः॑। प॒रिस्रु॒तेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) हवनकर्त्ता जन ! जैसे (होता) देनेवाला (नराशंसम्) जो मनुष्यों से स्तुति किया जाये उसके (न) समान (नग्नहुम्) नग्न दुष्ट पुरुषों को कारागृह में डालनेवाले (पतिम्) स्वामी वा (सुरया) जल के साथ (भेषजम्) औषध को वा (इन्द्रस्य) दुष्टगण का विदारण करने हारे जन के (वीर्यम्) शूरवीरों में उत्तम बल को (यक्षत्) सङ्गत करे तथा (मेषः) उपदेश करनेवाला (सरस्वती) विद्यासंबन्धिनी वाणी (भिषक्) वैद्य और (रथः) रथ के (न) समान (चन्द्री) बहुत सुवर्णवाला जन (अश्विनोः) आकाश और पृथिवी के मध्य (वपाः) क्रियाओं को वा (बदरैः) बेरों के समान (उपवाकाभिः) समीप प्राप्त हुई वाणियों के साथ (भेषजम्) औषध को सङ्गत करे, वैसे जो (तोक्मभिः) सन्तानों के साथ (पयः) दूध (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (सोमः) ओषधिगण (घृतम्) घी और (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो लोग लज्जाहीन पुरुषों को दण्ड देते, स्तुति करने योग्यों की स्तुति और जल के साथ औषध का सेवन करते हैं, वे बल और नीरोगता को पाके ऐश्वर्यवाले होते हैं ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) दाता (यक्षत्) यजेत् (नराशंसम्) यो नरैराशस्यते स्तूयते तम् (न) इव (नग्नहुम्) यो नग्नान् दुष्टान् जुहोति कारागृहे प्रक्षिपति तम्। अत्र हुधातोर्बाहुलकादौणादिको डु प्रत्ययः (पतिम्) स्वामिनम् (सुरया) उदकेन। सुरेत्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं०१.१२ ॥ (भेषजम्) औषधम् (मेषः) उपदेष्टा (सरस्वती) विद्यासम्बन्धिनी वाक् (भिषक्) वैद्यः (रथः) (न) इव (चन्द्री) चन्द्रं बहुविधं सुवर्णं विद्यते यस्य (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योः (वपाः) वपन्ति याभिः क्रियाभिस्ताः (इन्द्रस्य) दुष्टजनविदारकस्य सकाशात् (वीर्यम्) वीरेषु साधु (बदरैः) बदरीफलैरिव (उपवाकाभिः) उपगताभिर्वाग्भिः (भेषजम्) चिकित्सकम् (तोक्मभिः) अपत्यैः (पयः) दुग्धम् (सोमः) (परिस्रुता) परितः स्रुता प्राप्तेन (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता नराशंसं न नग्नहुं पतिं सुरया सह वर्त्तमानं भेषजमिन्द्रस्य वीर्यं यक्षत्मेषः सरस्वती भिषग्रथो न चन्द्र्यश्विनोर्वपा बदरैरुपवाकाभिः सह भेषजं यक्षत्तथा यानि तोक्मभिः सह पयः परिस्रुता सह सोमो घृतं मधु च व्यन्तु, तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये निर्लज्जान् दण्डयन्ति, प्रशंसनीयान् स्तुवन्ति, जलेन सहौषधं सेवन्ते, ते बलाऽऽरोग्ये प्राप्यैश्वर्यवन्तो जायन्ते ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक निर्लज्ज माणसांना शिक्षा करतात व स्तुती करण्यायोग्य माणसांची स्तुती करतात, तसेच पाण्याबरोबर औषधांचे सेवन करतात ते बलवान व निरोगी बनून ऐश्वर्यप्राप्ती करतात.