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शै॒शि॒रेण॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वास्त्र॑यस्त्रि॒ꣳशे᳕ऽमृता॑ स्तु॒ताः। स॒त्येन॑ रे॒वतीः॑ क्ष॒त्रꣳ ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः ॥२८ ॥

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पद पाठ

शै॒शि॒रेण॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽत्रि॒ꣳशे। अ॒मृताः॑। स्तु॒ताः। स॒त्येन॑। रे॒वतीः॑। क्ष॒त्रम्। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अमृताः) अपने स्वरूप से नित्य (स्तुताः) प्रशंसा के योग्य (शैशिरेण, ऋतुना) प्राप्त होने योग्य शिशिर ऋतु से (देवाः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाले (सत्येन) सत्य के साथ (त्रयस्त्रिंशे) तेंतीस वसु आदि के समुदाय में विद्वान् लोग (रेवतीः) धनयुक्त शत्रुओं की सेनाओं को कूद के जानेवाली प्रजाओं और (इन्द्रे) जीव में (हविः) देने-लेने योग्य (क्षत्रम्) धन वा राज्य और (वयः) वाञ्छित सुख को (दधुः) धारण करें, उन से पृथिवी आदि की विद्याओं का ग्रहण करो ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - जो लोग पीछे कहे हुए आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, बिजुली और यज्ञ इन तेंतीस दिव्य पदार्थों को जानते हैं, वे अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं ॥२८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(शैशिरेण) शिशिरेण (ऋतुना) (देवाः) दिव्यगुणकर्मस्वभावाः (त्रयस्त्रिंशे) वस्वादिसमूहे (अमृताः) स्वस्वरूपेण नित्याः (स्तुताः) प्रशंसिताः (सत्येन) (रेवतीः) धनवती शत्रुसेनोल्लङ्घिकाः प्रजाः (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (हविः) (इन्द्रे) (वयः) (दधुः) ॥२८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! येऽमृताः स्तुताः शैशिरेणर्त्तुना देवाः सत्येन सह त्रयस्त्रिंशे विद्वांसो रेवतीरिन्द्रे हविः क्षत्रं वयश्च दधुस्तेभ्यो भूम्यादिविद्या गृह्णीत ॥२८
भावार्थभाषाः - ये पूर्वोक्तानष्टौ वसूनेकादश रुद्रान् द्वादशाऽऽदित्यान् विद्युतं यज्ञं चेमान् त्रयस्त्रिंशद् दिव्यान् पदार्थान् जानन्ति, तेऽक्षय्यं सुखमाप्नुवन्ति ॥२८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक पूर्वी कथन केल्याप्रमाणे आठ वसू, अकरा रुद्र, बारा आदित्य, विद्युत व यज्ञ या तेहतीस दिव्य पदार्थांना जाणतात ते चिरकाल सुख प्राप्त करतात.