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त्वष्टा॑ तु॒रीपो॒ऽअद्भु॑तऽइन्द्रा॒ग्नी पु॑ष्टि॒वर्ध॑ना। द्विप॑दा॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यमु॒क्षा गौर्न वयो॑ दधुः ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वष्टा॑। तु॒रीपः॑। अद्भु॑तः। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइति इन्द्रा॒ग्नी। पु॒ष्टि॒वर्ध॒नेति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑ना। द्विप॑देति॒ द्विऽप॑दा। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। उ॒क्षा। गौः। न। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जो (अद्भुतः) आश्चर्य्य गुण-कर्म-स्वभावयुक्त (तुरीपः) शीघ्र प्राप्त होने (त्वष्टा) और सूक्ष्म करने हारे तथा (पुष्टिवर्द्धना) पुष्टि को बढ़ाने हारे (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि दोनों और (द्विपदा) दो पादवाले (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) श्रोत्र आदि इन्द्रिय को (उक्षा) सेचन करने में समर्थ (गौः) बैल के (न) समान (वयः) जीवन को (दधुः) धारण करें, उनको जानो ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रसिद्ध अग्नि, बिजुली, पेट में का अग्नि, वडवानल ये चार और प्राण, इन्द्रियाँ तथा गाय आदि पशु सब जगत् की पुष्टि करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को ब्रह्मचर्य आदि से अपना और दूसरों का बल बढ़ाना चाहिए ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(त्वष्टा) तनूकर्त्ता (तुरीपः) तूर्णमाप्नोति सः (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः (इन्द्राग्नी) इन्द्रश्चाग्निश्च तौ वाय्वग्नी (पुष्टिवर्धना) यौ पुष्टिं वर्धयतस्तौ (द्विपदा) द्वौ पादौ यस्यां सा (छन्दः) (इन्द्रियम्) श्रोत्रादिकम् (उक्षा) सेचनसमर्थः (गौः) (न) इव (वयः) जीवनम् (दधुः) धरेयुः ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! येऽद्भुतस्तुरीपस्त्वष्टा पुष्टिवर्धनेन्द्राग्नी द्विपदा छन्द इन्द्रियमुक्षा गौर्न वयो दधुस्तान् विजानीत ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्रसिद्धोऽग्निर्विद्युज्जाठरो वडवानल एते चत्वारः प्राण इन्द्रियाणि गवादयः पशवश्च सर्वस्य जगतः पुष्टिं कुर्वन्ति, तथैव मनुष्यैर्ब्रह्मचर्यादिना स्वस्य परेषां च बलं वर्द्धनीयम् ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे अग्नी, विद्युत, जठराग्नी व वडवानल हे चार आणि प्राण, इंद्रिये व गाय इत्यादी पशू सर्व जगाचे पोषण करतात तसे माणसांनीही ब्रह्मचर्य इत्यादींनी आपले व इतरांचे बल वाढविले पाहिजे.