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तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदाशा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शꣳस॒ मा न॒ऽआयुः॒ प्र मो॑षीः ॥२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विर्भि॒रिति॑ ह॒विःऽभिः॑। अहे॑डमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑शꣳसेत्युरु॑ऽशꣳस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) अति उत्तम विद्वान् पुरुष ! जैसे (यजमानः) यजमान (हविर्भिः) देने योग्य पदार्थों से (तत्) उस की (आ, शास्ते) इच्छा करता है वैसे (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान से (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ मैं (तत्) उस (त्वा) तुझ को (यासि) प्राप्त होता हूँ। हे (उरुशंस) बहुत लोगों से प्रशंसा किये हुए जन ! मुझ से (अहेडमानः) सत्कार को प्राप्त होता हुआ तू (इह) इस संसार में (नः) हमारे (आयुः) जीवन वा विज्ञान को (मा) मत (प्र, मोषीः) चुरा लेवे और शास्त्र का (बोधि) बोध कराया कर ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - इस में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जिससे विद्या को प्राप्त हो, वह उसको प्रथम नमस्कार करे। जो जिस का पढ़ानेवाला हो, वह उसको विद्या देने के लिए कपट न करे, कदापि किसी को आचार्य का अपमान न करना चाहिए ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तत्) तम् (त्वा) त्वाम् (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदविज्ञानेन (वन्दमानः) स्तुवन् (तत्) (आ) (शास्ते) इच्छति (यजमानः) (हविर्भिः) होतुं दातुमर्हैः पदार्थैः (अहेडमानः) सत्क्रियमाणः (वरुण) अत्युत्तम (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) बोधय (उरुशंस) बहुभिः प्रशंसित (मा) (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनं विज्ञानं वा (प्र) (मोषीः) चोरयेः ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वरुण विद्वज्जन ! यथा यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते तथा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहं तत्त्वा यामि। हे उरुशंस ! मयाऽहेडमानस्त्वमिह न आयुर्मा प्रमोषीः शास्त्रं बोधि ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो यस्माद्विद्यामाप्नुयात्स तं पूर्वमभिवादयेत्। यो यस्याध्यापकः स्यात्स तस्मै विद्यादानाय कपटं न कुर्यात्, कदाचित्केनचिदाचार्य्यो नाऽवमन्तव्यः ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस ज्याच्याकडून विद्या प्राप्त करतो त्याला प्रथम त्याने नमस्कार करावा व जो विद्या शिकवितो त्यानेही विद्या देताना कपट करू नये, कधीही कुणा आचार्याचा अपमान करू नये.