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सु॒ब॒र्हिर॒ग्निः पू॑षण्वान्त्स्ती॒र्णब॑र्हि॒रम॑र्त्यः। बृ॒ह॒ती छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्रि॑व॒त्सो गौर्वयो॑ दधुः ॥१५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ब॒र्हिरिति॑ सु॒ऽब॒र्हिः। अ॒ग्निः। पू॒ष॒ण्वानिति॑ पूष॒ण्ऽवान्। स्ती॒र्णब॑र्हिरिति॑ स्ती॒र्णऽब॑र्हिः। अम॑र्त्यः। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्रि॒व॒त्स इति॑ त्रिऽव॒त्सः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (पूषण्वान्) पुष्टि करने हारे गुणों से युक्त (स्तीर्णबर्हिः) आकाश को व्याप्त होनेवाला (अमर्त्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (सुबर्हिः) आकाश को शुद्ध करने हारा (अग्निः) अग्नि के समान जन और (बृहती) बृहती (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को धारण करें और (त्रिवत्सः) त्रिवत्स अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन जिस के अनुगामी वह (गौः) गौ के समान मनुष्य (वयः) तृप्ति को प्राप्त करें, वैसे इस को सब लोग (दधुः) धारण करें ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अन्तरिक्ष में चलता है, वैसे विद्वान् लोग सूक्ष्म और निराकार पदार्थों की विद्या में चलते हैं, जैसे गाय के पीछे बछड़ा चलता है, वैसे अविद्वान् जन विद्वानों के पीछे चला करें और अपनी इन्द्रियों को वश में लावें ॥१५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सुबर्हिः) सुशोभनं बर्हिरन्तरिक्षं यस्मात्सः (अग्निः) पावकः (पूषण्वान्) पूषाणः पुष्टिकरा गुणा विद्यन्ते यस्मिन् (स्तीर्णबर्हिः) स्तीर्णं बर्हिरन्तरिक्षं येन सः (अमर्त्यः) स्वस्वरूपेण मृत्युधर्मरहितः (बृहती) (छन्दः) (इन्द्रियम्) (त्रिवत्सः) त्रीणि देहेन्द्रियमनांसि वत्सा इवानुचराणि यस्य सः (गौः) धेनु (वयः) येन व्येति व्याप्नोति तत् (दधुः) दध्युः ॥१५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा पूषण्वान् स्तीर्णबर्हिरमर्त्यः सुबर्हिरग्निरिव जना बृहती छन्दश्चेन्द्रियं दध्यात्त्रिवत्सो गौरिव वयो दध्यात्तथैतद् दधुः ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाग्निरन्तरिक्षे चरति तथा विद्वांसः सूक्ष्मनिराकारपदार्थविद्यायां चरन्ति, यथा गोरनुकूलो वत्सो भवति, तथा विद्वदनुकूला अविद्वांसश्चरन्त्विन्द्रियाणि च वशमानयेयुः ॥१५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अंतरिक्षात सूक्ष्म अग्नी असतो. तशी विद्वान लोकांची सूक्ष्म व निराकार पदार्थविद्येमध्ये गती असते. जसे पाडस गाईच्या मागे चालते तसे अविद्वान लोकांनी विद्वानांचे अनुसरण करावे व आपल्या इंद्रियांना ताब्यात ठेवावे.