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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सरस्वती) विद्यावती स्त्री (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक और (इन्द्रः) सभा का अधिष्ठाता (इन्द्राय) जीव के लिये (प्राणेन) जीवन के साथ (वीर्यम्) पराक्रम और (तेजसा) प्रकाश से (चक्षुः) प्रत्यक्ष नेत्र (वाचा) वाणी और (बलेन) बल से (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को (दधुः) धारण करें, वैसे तुम भी धारण करो ॥८० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग जैसे-जैसे विद्वानों के सङ्ग से विद्या को बढ़ावें, वैसे-वैसे विज्ञान में रुचिवाले होवें ॥८० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(अश्विना) अध्यापकोदेशकौ (तेजसा) प्रकाशेन (चक्षुः) प्रत्यक्षं चक्षुः (प्राणेन) जीवनेन (सरस्वती) विद्यावती (वीर्यम्) पराक्रमम् (वाचा) वाण्या (इन्द्रः) सभेशः (बलेन) (इन्द्राय) जीवाय (दधुः) धरेयुः (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य जीवस्य लिङ्गम् ॥८० ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सरस्वती अश्विनेन्द्रश्चेन्द्राय प्राणेन वीर्यं तेजसा चक्षुर्वाचा बलेनेन्द्रियं दधुस्तथा धरन्तु ॥८० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथा यथा विद्वत्सङ्गेन विद्यां वर्द्धयेयुस्तथा तथा विज्ञानरुचयः स्युः ॥८० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे विद्वानांच्या संगतीने जशी विद्यावृद्धी करतात. तशी त्यांनी विज्ञानातही रुची वाढवावी.