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अहा॑व्यग्ने ह॒विरा॒स्ये᳖ ते स्रु॒ची᳖व घृ॒तं च॒म्वी᳖व॒ सोमः॑। वा॒ज॒सनि॑ꣳ र॒यिम॒स्मे सु॒वीरं॑ प्रश॒स्तं धे॑हि य॒शसं॑ बृ॒हन्त॑म् ॥७९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अहा॑वि। अ॒ग्ने॒। ह॒विः। आ॒स्ये᳖। ते॒। स्रु॒ची᳖वेति॑ स्रु॒चिऽइ॑व। घृ॒तम्। च॒म्वी᳖वेति॑ च॒म्वी᳖ऽइव। सोमः॑। वा॒ज॒सनि॒मिति॑ वाज॒ऽसनि॑म्। र॒यिम्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवीर॑म्। प्र॒श॒स्तमिति॑ प्रश॒स्तम्। धे॒हि॒। य॒शस॑म्। बृ॒हन्त॑म् ॥७९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:79


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) उत्तम विद्यायुक्त पुरुष ! जिस तूने (सोमः) ऐश्वर्ययुक्त (हविः) होम करने योग्य वस्तु (ते) तेरे (आस्ये) मुख में (घृतम्) (स्रुचीव) जैसे घृत स्रुच् के मुख में और (चम्वीव) जैसे यज्ञ के पात्र में होम के योग्य वस्तु वैसे (अहावि) होमा है, वह तू (अस्मे) हम लोगों में (प्रशस्तम्) बहुत उत्तम (सुवीरम्) अच्छे वीर पुरुषों के उपयोगी और (वाजसनिम्) अन्न, विज्ञान आदि गुणों का विभाग (यशसम्) कीर्त्ति करनेहारी (बृहन्तम्) बड़ी (रयिम्) राज्यलक्ष्मी को (धेहि) धारण कर ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गृहस्थ पुरुषों को चाहिये कि उन्हीं का भोजन आदि से सत्कार करें, जो लोग पढ़ाना, उपदेश और अच्छे कर्मों के अनुष्ठान से जगत् में बल, पराक्रम, यश, धन और विज्ञान को बढ़ावें ॥७९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अहावि) हूयते (अग्ने) विद्वन् (हविः) होतुमर्हम् (आस्ये) मुखे (ते) तव (स्रुचीव) यथा स्रुङ्मुखे (घृतम्) आज्यम् (चम्वीव) यथा चम्वौ यज्ञपात्रे (सोमः) ऐश्वर्यसम्पन्नः (वाजसनिम्) वाजस्य सनिर्विभागो यस्य तस्मिन् (रयिम्) राज्यश्रियम् (अस्मे) अस्मासु (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात् तम् (प्रशस्तम्) उत्कृष्टम् (धेहि) (यशसम्) कीर्तिकरम् (बृहन्तम्) महान्तम् ॥७९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विद्वन् ! येन त्वया सोमो हविस्त आस्ये घृतं स्रुचीव चम्वीव हविरहावि, स त्वमस्मे प्रशस्तं सुवीरं वाजसनिं यशसं बृहन्तं रयिं धेहि ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। गृहस्थैस्तेषामेव भोजनादिना सत्कारः कर्त्तव्यो येऽध्यापनोदेशसुकर्मानुष्ठानैर्जगति बलवीर्यकीर्त्तिधनविज्ञानानि वर्द्धयेयुः ॥७९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. गृहस्थांनी अशा लोकांचाच सन्मान करावा व त्यांना भोजन द्यावे, जे लोक अध्यापन व उपदेश आणि चांगल्या कर्माचे अनुष्ठान करून जगात बल, पराक्रम, यश, धन व विज्ञान यांची वृद्धी करतात.