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पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥७७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥७७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:77


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) उत्तमधन (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! तू (शचीभिः) बुद्धियों के साथ (यत्) जिससे (सुरामम्) अति रमणीय महौषधि के रस को (व्यपिबः) पीता है, इससे (सरस्वती) उत्तम शिक्षावती स्त्री (त्वा) तुझ को (अभिष्णक्) समीप सेवन करे, (उभा) दोनों (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक (काव्यैः) कवियों के किये हुए (दंसनाभिः) कर्मों से जैसे (पितरौ) माता-पिता (पुत्रमिव) पुत्र का पालन करते हैं, वैसे तेरी (आवथुः) रक्षा करें ॥७७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता-पिता अपने सन्तानों की रक्षा करके सदा बढ़ावें, वैसे अध्यापक और उपदेशक शिष्य की रक्षा करके विद्या से बढ़ावें ॥७७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

(पुत्रमिव) (पितरौ) (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (उभा) (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त विद्वन् (आवथुः) रक्षताम्। पुरुषव्यत्ययः (काव्यैः) कविभिर्निर्मितैः (दंसनाभिः) कर्मभिः (यत्) (सुरामम्) सुष्ठु रमन्ते यस्मिन् तत् (वि) (अपिबः) पिबेः (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (सरस्वती) सुशिक्षिता स्त्री (त्वा) त्वाम् (मघवन्) पूजितधनयुक्त (अभिष्णक्) उपसेवेत। अत्र भिष्णज् उपसेवायामित्यस्य कण्ड्वादेर्लङि यको व्यत्ययेन लुक् ॥७७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मघवन्निन्द्र ! त्वं शचीभिर्यत् सुरामं व्यपिबस्तत् सरस्वती त्वाभिष्णगुभाश्विना काव्यैर्दंसनाभिः पितरौ पुत्रमिव त्वामावथुः ॥७७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा मातापितरौ स्वसन्तानान् रक्षित्वा नित्यमुन्नयेताम्, तथाऽध्यापकोपदेशकाः शिष्यान् सुरक्ष्य विद्यया वर्द्धयेयुः ॥७७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे आई-वडील आपल्या मुलांचे रक्षण करून त्यांची नेहमी उन्नती करतात तसे अध्यापकांनी व उपदेशकांनी शिष्यांचे रक्षण करून विद्या वाढवावी.