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क॒व॒ष्यो᳕ न व्यच॑स्वतीर॒श्विभ्यां॒ न दुरो॒ दिशः॑। इन्द्रो॒ न रोद॑सीऽउ॒भे दु॒हे कामा॒न्त्सर॑स्वती ॥६० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒व॒ष्यः᳕। न। व्यच॑स्वतीः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। न। दुरः॑। दिशः॑। इन्द्रः॑। न। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। उ॒भेऽइत्यु॒भे। दु॒हे। कामा॑न्। सर॑स्वती ॥६० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:60


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) अतिश्रेष्ठ ज्ञानवती मैं (इन्द्रः) बिजुली (अश्विभ्याम्) सूर्य और चन्द्रमा से (व्यचस्वतीः) व्याप्त होनेवाली (कवष्यः) अत्यन्त प्रशंसित (दिशः) दिशाओं को (न) जैसे तथा (दुरः) द्वारों को (न) जैसे वा (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और पृथिवी को जैसे (न) वैसे (कामान्) कामनाओं को (दुहे) पूर्ण करती हूँ ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बिजुली सूर्य-चन्द्रमा से दिशाओं के और द्वारों के अन्धकार का नाश करती है वा जैसे पृथिवी और प्रकाश को धारण करती है, वैसे पण्डिता स्त्री पुरुषार्थ से अपनी इच्छा पूर्ण करे ॥६० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

(कवष्यः) प्रशस्ताः। अत्र कु शब्दे धातोर्बाहुलकादौणादिकोऽषट् प्रत्ययः (न) इव (व्यचस्वतीः) व्याप्तिमत्यः (अश्विभ्याम्) सूर्याचन्द्रमोभ्याम् (न) इव (दुरः) द्वाराणि (दिशः) (इन्द्रः) विद्युत् (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उभे) (दुहे) पिपर्मि (कामान्) (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता ॥६० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - सरस्वत्यहमिन्द्र अश्विभ्यां व्यचस्वतीः कवष्यो दिशो न दुरो न उभे रोदसी न वा कामान् दुहे ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथेन्द्रः सूर्याचन्द्रमोभ्यां दिशां द्वाराणां चान्धकारं विनाशयति, यथा वा भूमिप्रकाशौ धरति, तथा विदुषी पुरुषार्थेनेच्छाः प्रपूरयेत् ॥६० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. विद्युत जशी सूर्य चंद्राद्वारे सर्व दिशांचा व द्वारांचा अंधःकार नष्ट करते किंवा पृथ्वीला व प्रकाशाला जशी धारण करते तसे विदुषी स्रीने आपल्या पुरुषार्थाने कामना पूर्ण करतात.