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अ॒श्विना॒ नमु॑चेः सु॒तꣳ सोम॑ꣳ शु॒क्रं प॑रि॒स्रुता॑। सर॑स्वती॒ तमाभ॑रद् ब॒र्हिषेन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥५९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। सु॒तम्। सोम॑म्। शु॒क्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सर॑स्वती। तम्। आ। अ॒भ॒र॒त्। ब॒र्हिषा॑। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥५९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:59


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (परिस्रुता) सब ओर से अच्छे चलन युक्त (अश्विना) शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में व्याप्त (सरस्वती) प्रशंसायुक्त स्त्री तथा पुरुष (बर्हिषा) सुख बढ़ानेवाले कर्म्म से (इन्द्राय) परमैश्वर्य के सुख के लिये और (नमुचेः) जो नहीं छोड़ता, उस असाध्य रोग के दूर होने के लिये (शुक्रम्) वीर्यकारी (सुतम्) अच्छे सिद्ध किये (सोमम्) सोम आदि ओषधियों के समूह की (पातवे) रक्षा के लिये (तम्) उस रस को (आ, अभरत्) धारण करती और करता है, वे ही सर्वदा सुखी रहते हैं ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - जो अङ्ग-उपाङ्ग सहित वेदों को पढ़ के हस्तक्रिया जानते हैं, वे असाध्य रोगों को भी दूर करते हैं ॥५९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अश्विना) सद्गुणकर्मस्वभावव्यापिनौ (नमुचेः) यो न मुञ्चति तस्यासाध्यस्यापि रोगस्य (सुतम्) सम्यक् निष्पादितम् (सोमम्) सोमाद्योषधिगणम् (शुक्रम्) वीर्यकरम् (परिस्रुता) परितः सर्वतो गच्छन्तावव्याहतगती। स्रु गतौ धातोः क्विप्, तुक्, द्विवचनस्य सुपाम्० [अष्टा०७.१.३९] इत्यात्वम्। (सरस्वती) प्रशंसिता गृहिणी तथा पुरुषः (तम्) (आ) (अभरत्) बिभर्त्ति (बर्हिषा) सुखवर्द्धकेन कर्मणा (इन्द्राय) परमैश्वर्यसुखाय (पातवे) पातुम्। अत्र पा धातोस्तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः ॥५९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यौ परिस्रुताऽश्विना सरस्वती बर्हिषेन्द्राय नमुचेर्निवारणाय च शुक्र सुतं सोमं पातवे तमाभरत् समन्ताद् भरतः सदा तावेव सुखिनौ भवतः ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - ये साङ्गोपाङ्गान् वेदान् पठित्वा हस्तक्रियां विजानन्ति, तेऽसाध्यानपि रोगान्निवर्त्तयन्ति ॥५९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक वेदवेदांगाचे अध्ययन करून (शस्रक्रिया) हस्तक्रिया जाणून घेतात तेच असाध्य रोगांना दूर करतात.