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इन्द्रा॒येन्दु॒ꣳ सर॑स्वती॒ नरा॒शꣳसे॑न न॒ग्नहु॑म्। अधा॑ताम॒श्विना॒ मधु॑ भेष॒जं भि॒षजा॑ सु॒ते ॥५७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑य। इन्दु॑म्। सर॑स्वती। नरा॒शꣳसे॑न। न॒ग्नहु॑म्। अधा॑ताम्। अ॒श्विना॑। मधु॑। भे॒ष॒जम्। भि॒षजा॑। सु॒ते ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रधानता से वैद्यों के व्यवहार को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) वैद्यकविद्या में व्याप्त (भिषजा) उत्तम वैद्यजन (इन्द्राय) दुःखनाश के लिये (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (मधु) ज्ञानवर्द्धक कोमलतादि गुणयुक्त (भेषजम्) औषध को (अधाताम्) धारण करें और (नराशंसेन) मनुष्यों से स्तुति किये हुए वचन से (सरस्वती) प्रशस्तविद्यायुक्त वाणी (नग्नहुम्) आनन्द करानेवाले विषय को ग्रहण करनेवाले (इन्दुम्) ऐश्वर्य को धारण करें ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - वैद्य दो प्रकार के होते हैं−एक ज्वरादि शरीररोगों के नाशक चिकित्सा करनेहारे और दूसरे मन के रोग जो कि अविद्यादि मानस क्लेश हैं, उनके निवारण करनेहारे अध्यापक, उपदेशक हैं। जहाँ ये रहते हैं, वहाँ रोगों के विनाश से प्राणी लोग शरीर और मन के रोगों से छूटकर सुखी होते हैं ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्राधान्येन भिषजां व्यवहारमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्राय) दुःखविदारणाय (इन्दुम्) परमैश्वर्यम् (सरस्वती) प्रशस्तविद्यायुक्ता वाणी (नराशंसेन) नरैः स्तुतेन (नग्नहुम्) यो नन्दयति स नग्नस्तमाददातीति (अधाताम्) दध्याताम् (अश्विना) वैद्यकविद्याव्यापिनौ (मधु) ज्ञानवर्द्धकं मधुरादिगुणयुक्तम् (भेषजम्) औषधम् (भिषजा) सद्वैद्यौ (सुते) उत्पन्नेऽस्मिञ्जगति ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अश्विना भिषजेन्द्राय सुते मधु भेषजमधाताम्। नराशंसेन सरस्वती नग्नहुमिन्दुमादधातु ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - वैद्या द्विधा एके ज्वरादिशरीररोगाऽपहारकाश्चिकित्सकाः। अपरे मानसाविद्यादिरोगविनाशका अध्यापकोपदेशकास्सन्ति, यत्रैते वर्तन्ते तत्र रोगाणां विनाशात् सर्वे प्राणिन आधिव्याधिमुक्ता भूत्वा सुखिनो भवन्ति ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वैद्य दोन प्रकारचे असतात. एक शरीरज्वर वगैरे निवारण करणारे वैद्य व दुसरे अविद्या वगैरे मानसिक क्लेशामुळे होणाऱ्या रोगाचे निवारण करणारे अध्यापक व उपदेशक. जेथे हे असतात तेथे शरीर व मनाचे रोग नाहिसे होऊन प्राणी होतात.