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आ न॒ऽइन्द्रो॑ दू॒रादा न॑ऽआ॒साद॑भिष्टि॒कृदव॑से यासदु॒ग्रः। ओजि॑ष्ठेभिर्नृ॒पति॒र्वज्र॑बाहुः स॒ङ्गे स॒मत्सु॑ तु॒र्वणिः॑ पृत॒न्यून् ॥४८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। इन्द्रः॑। दू॒रात्। आ। नः॒। आ॒सात्। अ॒भि॒ष्टि॒कृदित्य॑भिष्टि॒ऽकृत्। अव॑से। या॒स॒त्। उ॒ग्रः। ओजि॑ष्ठेभिः। नृ॒पति॒रिति॑ नृ॒ऽपतिः॑। वज्र॑बाहु॒रिति॒ वज्र॑ऽबाहुः। स॒ङ्ग इति॑ स॒म्ऽगे। स॒मत्स्विति॑ स॒मत्ऽसु॑। तु॒र्वणिः॑। पृ॒त॒न्यून् ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:48


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अभिष्टिकृत्) सब ओर से इष्ट सुख करे (वज्रबाहुः) जिसकी वज्र के समान दृढ़ भुजा (नृपतिः) नरों का पालन करनेहारा (ओजिष्ठेभिः) अति बलवाले योद्धाओं से (उग्रः) दुष्टों पर क्रोध करने और (तुर्वणिः) शीघ्र शत्रुओं का मारनेहारा (इन्द्रः) शत्रुविदारक सेनापति (नः) हमारी (अवसे) रक्षादि के लिये (समत्सु) बहुत संग्रामों में (सङ्गे) प्रसंग में (दूरात्) दूर से और (आसात्) समीप से (आ, यासत्) आवे और (नः) हमारे (पृतन्यून्) सेना और संग्राम की इच्छा करनेहारों की (आ) सदा रक्षा और मान्य करे, वह हम लोगों का भी सदा माननीय होवे ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही पुरुष राज्य करने को योग्य होते हैं जो दूरस्थ और समीपस्थ सब मनुष्यादि प्रजाओं की यथावत् समीक्षण और दूत भेजने से रक्षा करते और शूरवीर का सत्कार भी निरन्तर करते हैं ॥४८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) शत्रुविदारकः (दूरात्) विप्रकृष्टाद् देशात् (आ) (नः) (आसात्) समीपात् (अभिष्टिकृत्) योऽभिष्टिं सर्वत इष्टं सुखं करोति सः (अवसे) रक्षणाद्याय (यासत्) यायात् (उग्रः) दुष्टानामुपरि क्रोधकृत् (ओजिष्ठेभिः) बलिष्ठैर्योद्धृभिः (नृपतिः) नॄणां पालकः (वज्रबाहुः) वज्रमिव दृढौ बाहू यस्य (सङ्गे) सह (समत्सु) संग्रामेषु (तुर्वणिः) शीघ्रशत्रुहन्ता (पृतन्यून्) आत्मनः पृतनाः सेना इच्छून् ॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - योऽभिष्टिकृद्वज्रबाहुर्नृपतिरोजिष्ठेभिरुग्रस्तुर्वणिरिन्द्रो नोऽवसे समत्सु सङ्गे दूरादासादायासन्नोऽस्मान् पृतन्यून् सततमारक्षेन्मानयेच्च सोऽस्माऽभिरपि सदा माननीयः ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - त एव राज्यं कर्त्तुमर्हन्ति ये दूरस्थाः समीपस्थाः सर्वाः प्रजा अवेक्षणदूतप्रचाराभ्यां रक्षन्ति, शूरवीराणां सत्कारं च सततं कुर्वन्ति ॥४८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - दूर व जवळ राहणाऱ्या सर्व प्रजेचे यथायोग्य परीक्षण करून दूतांद्वारे माहिती प्राप्त करून जे सर्वांचे रक्षण करतात, तसेच शूरवीरांचा सतत सत्कार करतात तेच पुरुष राज्य करण्यायोग्य असतात.