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वन॒स्पति॒रव॑सृष्टो॒ न पाशै॒स्त्मन्या॑ सम॒ञ्जञ्छ॑मि॒ता न दे॒वः। इन्द्र॑स्य ह॒व्यैर्ज॒ठरं॑ पृणा॒नः स्वदा॑ति य॒ज्ञं मधु॑ना घृ॒तेन॑ ॥४५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वन॒स्पतिः॑। अव॑सृष्ट॒ इत्य॒वऽसृ॑ष्टः। न। पाशैः॑। त्मन्या॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। श॒मि॒ता। न। दे॒वः। इन्द्र॑स्य। ह॒व्यैः। ज॒ठर॑म्। पृ॒णा॒नः। स्वदा॑ति। य॒ज्ञम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑ ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (पाशैः) दृढ़ बन्धनों से (वनस्पतिः) वृक्षसमूह का पालन करनेहारा (अवसृष्टः) आज्ञा दिये हुए पुरुष के (न) समान (त्मन्या) आत्मा के साथ (समञ्जन्) सम्पर्क करता हुआ (देवः) दिव्य सुख का देनेहारा (शमिता) यज्ञ के (न) समान (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्य के (जठरम्) उदर के समान कोश को (पृणानः) पूर्ण करता हुआ (हव्यैः) खाने के योग्य (मधुना) सहत और (घृतेन) घृत आदि पदार्थों से (यज्ञम्) अनुष्ठान करने योग्य यज्ञ को करता हुआ (स्वदाति) अच्छे प्रकार स्वाद लेवे, वह रोगरहित होवे ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बड़ आदि वनस्पति बढ़कर फलों को देता है, जैसे बन्धनों से बँधा हुआ चोर पाप से निवृत्त होता है वा जैसे यज्ञ सब जगत् की रक्षा करता है, वैसे यज्ञकर्त्ता युक्त आहार-विहार करनेवाला मनुष्य जगत् का उपकारक होता है ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(वनस्पतिः) वनस्य वृक्षसमूहस्य पतिः पालकः (अवसृष्टः) आज्ञप्तः पुरुषः (न) इव (पाशैः) दृढबन्धनैः (त्मन्या) आत्मना। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इति टास्थाने यादेशः (समञ्जन्) सम्पृचानः (शमिता) यज्ञः (न) इव (देवः) दिव्यसुखदाता (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यस्य (हव्यैः) अत्तुमर्हैः (जठरम्) उदरमिव कोशम् (पृणानः) पूर्णं कुर्वन् (स्वदाति) आस्वदेत। अत्र लेटि व्यत्ययेन परस्मैपदम् (यज्ञम्) अनुष्ठेयम् (मधुना) क्षौद्रेण (घृतेन) आज्येन ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यः पाशैर्वनस्पतिरवसृष्टो न त्मन्या समञ्जन् देवः शमिता नेन्द्रस्य जठरं पृणानो हव्यैर्मधुना घृतेन च सह यज्ञं कुर्वन् स्वदाति स रोगहीनः स्यात् ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा वनस्पतिर्वर्द्धमानः सन् फलानि ददाति यथा पाशैद्धर्बद्धश्चोरः पापान्निवर्त्तते यथा वा यज्ञः सर्वं जगद्रक्षति, तथा यज्ञसेवी युक्ताऽहारविहारी जनो जगदुपकारको भवति ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वड इत्यादी वनस्पतींची वाढ होऊन फळ प्राप्त होते व बंधन घातल्यामुळे चोर पापापासून दूर होतो. जसे यज्ञ सर्व जगाचे रक्षण करतो तसे युक्त आहार-विहार करणारा यज्ञकर्ता जगाला उपकारक ठरतो.