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यो भू॒ताना॒मधि॑पति॒र्यस्मिँ॑ल्लो॒काऽअधि॑ श्रि॒ताः। यऽईशे॑ मह॒तो म॒हाँस्तेन॑ गृह्णामि॒ त्वाम॒हं मयि॑ गृह्णामि॒ त्वाम॒हम् ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। भू॒ताना॑म्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। यस्मि॑न्। लो॒काः। अधि॑। श्रि॒ताः। यः। ईशे॑। म॒ह॒तः। म॒हान्। तेन॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। त्वाम्। अ॒हम्। मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। त्वाम्। अ॒हम् ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सब के हित की इच्छा करनेहारे पुरुष ! (यः) जो (भूतानाम्) पृथिव्यादि तत्त्वों और उनसे उत्पन्न हुए कार्यरूप लोकों का (अधिपतिः) अधिष्ठाता (महतः) बड़े आकाशादि से (महान्) बड़ा है, (यः) जो (ईशे) सब का ईश्वर है, (यस्मिन्) जिसमें सब (लोकाः) लोक (अधिश्रिताः) अधिष्ठित आश्रित हैं, (तेन) उससे (त्वाम्) तुझ को (अहम्) मैं (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ (मयि) मुझ में (त्वाम्) तुझ को (अहम्) मैं (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - जो उपासक अनन्त ब्रह्म में निष्ठा रखनेवाला ब्रह्म से भिन्न किसी वस्तु को उपास्य नहीं जानता, वही इस जगत् में विद्वान् माना जाना चाहिये ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

(यः) परमेश्वरः (भूतानाम्) पृथिव्यादितत्त्वानां तत्कार्याणां लोकानाम् (अधिपतिः) अधिष्ठाता (यस्मिन्) (लोकाः) संघाताः (अधि) (श्रिताः) (यः) (ईशे) ईष्टे। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु [अष्टा०७.१.४१] इति तलोपः (महतः) आकाशादेः (महान्) (तेन) (गृह्णामि) (त्वाम्) (अहम्) (मयि) (गृह्णामि) (त्वाम्) (अहम्) ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सर्वहितेच्छो ! यो भूतानामधिपतिर्महतो महानस्ति, य ईशे यस्मिन् सर्वे लोका अधिश्रितास्तेन त्वामहं गृह्णामि मयि त्वामहं गृह्णामि ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - य उपासकोऽनन्तब्रह्मनिष्ठो ब्रह्मभिन्नमुपास्यं किञ्चिद् वस्तु न जानाति, स एवात्र विद्वान् मन्तव्यः ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो उपासक अनंत ब्रह्मामध्ये निष्ठा ठेवतो व ब्रह्माहून अन्य वस्तुल उपास्य मानत नाही त्यालाच या जगात विद्वान मानावे.