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यत्रेन्द्र॑श्च वा॒युश्च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चरतः स॒ह। तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑षं॒ यत्र॑ से॒दिर्न वि॒द्यते॑ ॥२६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र॑। इन्द्रः॑। च॒। वा॒युः। च॒। स॒म्यञ्चौ॑। चर॑तः। स॒ह। तम्। लो॒कम्। पुण्य॑म्। प्र। ज्ञे॒षम्। यत्र॑। से॒दिः। न। वि॒द्यते॑ ॥२६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (यत्र) जिस ईश्वर में (इन्द्रः) सर्वव्याप्त बिजुली (च) और (वायुः) धनञ्जय आदि वायु (सह) साथ (सम्यञ्चौ) अच्छे प्रकार मिले हुए (चरतः) विचरते हैं (च) और (यत्र) जिस ब्रह्म में (सेदिः) नाश वा उत्पत्ति (न, विद्यते) नहीं विद्यमान है, (तम्) उस (पुण्यम्) पुण्य से उत्पन्न हुए ज्ञान से जानने योग्य (लोकम्) सबको देखनेहारे परमात्मा को (प्र, ज्ञेषम्) जानूँ, वैसे इसको तुम लोग भी जानो ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो कोई विद्वान् वायु बिजुली और आकाशादि की सीमा को जानना चाहे तो अन्त को प्राप्त नहीं होता। जिस ब्रह्म में ये सब आकाशादि विभु पदार्थ भी व्याप्य हैं, उस ब्रह्म के अन्त के जानने को कौन समर्थ हो सकता है ॥२६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यत्र) यस्मिन्नीश्वरे (इन्द्रः) सर्वत्राऽभिव्याप्ता विद्युत् (च) (वायुः) धनञ्जयादिस्वरूपः पवनः (च) (सम्यञ्चौ) (चरतः) (सह) (तम्) (लोकम्) सर्वस्य द्रष्टारम् (पुण्यम्) पुण्यजन्यज्ञानेन ज्ञातुमर्हम् (प्र) (ज्ञेषम्) जानीयाम् (यत्र) यस्मिन् (सेदिः) नाश उत्पत्तिर्वा (न) निषेधे (विद्यते) ॥२६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथाऽहं यत्रेन्द्रश्च वायुः सह सम्यञ्चौ चरतश्च, यत्र सेदिर्न विद्यते, तं पुण्यं लोकं प्रज्ञेषम्, तथैतं यूयं विजानीत ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि कश्चिद् विद्वान् वायुविद्युदाकाशादीनामियत्तां जिज्ञासेत, तर्ह्यन्तं न प्राप्नोति, यत्र चैते व्याप्याः सन्ति, तस्य ब्रह्मणोऽन्तं ज्ञातुं कः शक्नुयात् ॥२६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान वायू, विद्युत व आकाशाची सीमा जाणून घेऊ इच्छितात त्याचा अंत कुणालाही लागू शकत नाही. ज्या ब्रह्मात हे आकाश इत्यादी पदार्थही व्याप्त आहेत. त्या ब्रह्माचा अंत जाणण्यास कोण समर्थ असणार बरे !