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एधो॑ऽस्येधिषी॒महि॑ स॒मिद॑सि॒ तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि। स॒माव॑वर्ति पृथि॒वी समु॒षाः समु॒ सूर्यः॑। समु॒ विश्व॑मि॒दं जग॑त्। वै॒श्वा॒न॒रज्यो॑तिर्भूयासं वि॒भून् कामा॒न् व्य᳖श्नवै॒ भूः स्वाहा॑ ॥२३ ॥

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पद पाठ

एधः॑। अ॒सि॒। ए॒धि॒षी॒महि॑। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒। तेजः॑। अ॒सि॒। तेजः॑। मयि॑। धे॒हि॒। स॒माव॑व॒र्तीति॑ स॒म्ऽआव॑वर्ति। पृ॒थि॒वी। सम्। उ॒षाः। सम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सूर्यः॑। सम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। विश्व॑म्। इ॒दम्। जग॑त्। वै॒श्वा॒न॒रज्यो॑ति॒रिति॑ वैश्वान॒रऽज्यो॑तिः। भू॒या॒स॒म्। वि॒भूनिति॑ वि॒ऽभून्। कामा॑न्। वि। अ॒श्न॒वै॒। भूः। स्वाहा॑ ॥२३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकरणगत विषय में फिर उपासना विषय कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप (एधः) बढ़ानेहारे (असि) हैं, जैसे (समित्) अग्नि का प्रकाशक इन्धन है, वैसे मनुष्यों के आत्मा का प्रकाश करनेहारे (असि) हैं और (तेजः) तीव्रबुद्धिवाले (असि) हैं, इससे (तेजः) ज्ञान के प्रकाश को (मयि) मुझ में (धेहि) धारण कीजिये। जो आप सर्वत्र (समाववर्त्ति) अच्छे प्रकार व्याप्त हो जिन आपने (पृथिवी) भूमि और (उषाः) उषा (सम्) अच्छे प्रकार उत्पन्न की (सूर्य्यः) सूर्य्य (सम्) अच्छे प्रकार उत्पन्न किया (इदम्) यह (विश्वम्) सब (जगत्) जगत् (सम्) उत्पन्न किया (उ) उसी (वैश्वानरज्योतिः) विश्व के नायक प्रकाशस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होके लोग (एधिषीमहि) नित्य बढ़ा करें, जैसे मैं (स्वाहा) सत्यवाणी वा क्रिया से (भूः) सत्तावाली प्रकृति (विभून्) व्यापक पदार्थ और (कामान्) कामों को (व्यश्नवै) प्राप्त होऊँ और सुखी (भूयासम्) होऊँ (उ) और वैसे तुम भी सिद्धकाम और सुखी होओ ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस शुद्ध, सर्वत्र व्यापक, सब के प्रकाशक, जगत् के उत्पादन, धारण, पालन और प्रलय करनेहारे ब्रह्म की उपासना करके तुम लोग जैसे आनन्दित होते हो, वैसे इस को प्राप्त होके हम भी आनन्दित होवें; आकाश, काल और दिशाओं को भी व्यापक जानें ॥२३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकृतविषये पुनरुपासनाविषयमाह ॥

अन्वय:

(एधः) वर्द्धकः (असि) (एधिषीमहि) वर्द्धिषीमहि (समित्) अग्नेरिन्धनमिव मनुष्याणामात्मनां प्रकाशकः (असि) (तेजः) तीव्रप्रज्ञः (असि) (तेजः) ज्ञानप्रकाशम् (मयि) (धेहि) (समाववर्त्ति) सम्यग् वर्त्तेत। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं शपः श्लुश्च (पृथिवी) भूमिः (सम्) (उषाः) प्रभातः (सम्) (उ) इति वितर्के (सूर्यः) (सम्) (उ) (विश्वम्) (इदम्) (जगत्) (वैश्वानरज्योतिः) विश्वेषु नरेषु प्रकाशमानं वैश्वानरं वैश्वानरं च तज्ज्योतिश्च वैश्वानरज्योतिः (भूयासम्) (विभून्) व्यापकान् (कामान्) संकल्पितान् (वि) विविधतया (अश्नवै) प्राप्नुयाम् (भूः) सत्तात्मिकाम् (स्वाहा) सत्यया वाचा क्रियया च ॥२३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! त्वमेधोऽसि समिदसि तेजोऽसि, तस्मात् तेजो मयि धेहि। यो भवान् सर्वत्र समाववर्त्ति येन भवता पृथिव्युषाश्च संसृष्टा सूर्यः संसृष्ट इदं विश्वं जगत् संसृष्टम्, तदु वैश्वानरज्योतिर्ब्रह्म प्राप्य वयमेधिषीमहि, यथाऽहं स्वाहाभूर्विभून् कामान् व्यश्नवै सुखी न भूयासमु तथैव यूयमपि सिद्धकामाः सुखिनः स्यात ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यच्छुद्धं सर्वत्र व्यापकं सर्वप्रकाशकं जगत्स्रष्टृधर्तृप्रलयकृद् ब्रह्मोपास्य यूयमानन्दिता यथा भवत, तथैतल्लब्ध्वा वयमप्यानन्दिता भवेमाऽऽकाशकालदिशोऽपि विभून् जानीयाम ॥२३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्या शुद्ध, सर्वव्यापक, सर्वांचा प्रकाशक, जगाची निर्मिती, धारण, पालन व प्रलय करणाऱ्या ब्रह्माची उपासना करून तुम्ही आनंदी होता त्या ब्रह्माला प्राप्त करून आम्हीही आनंदी व्हावे. आकाश, दिशा व काळ हे व्यापक आहेत, हे जाणा.