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अस्क॑न्नम॒द्य दे॒वेभ्य॒ऽआज्य॒ꣳ संभ्रि॑यास॒मङ्घ्रि॑णा विष्णो॒ मा त्वाव॑क्रमिषं॒ वसु॑मतीमग्ने ते छा॒यामुप॑स्थेषं॒ विष्णो॒ स्थान॑मसी॒तऽइन्द्रो॑ वी॒र्य्य᳖मकृणोदू॒र्ध्वो᳖ऽध्व॒रऽआस्था॑त् ॥८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अस्क॑न्नम्। अ॒द्य। दे॒वेभ्यः॑। आज्य॑म्। सम्। भ्रि॒या॒स॒म्। अङ्घ्रि॑णा। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। मा। त्वा॒। अव॑। क्र॒मि॒ष॒म्। वसु॑मती॒मिति॒ वसु॑ऽमतीम्। अ॒ग्ने॒। ते॒। छा॒याम्। उप॑। स्थे॒ष॒म्। विष्णोः॑। स्थान॑म्। अ॒सि॒। इ॒तः। इन्द्रः॑। वी॒र्य्य᳖म्। अ॒कृ॒णो॒त्। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध्व॒रः। आ। अ॒स्था॒त् ॥८॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त यज्ञ कैसा होकर क्या करता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (देवेभ्यः) उत्तम सुखों की प्राप्ति के लिये जो (अस्कन्नम्) निश्चल सुखदायक (आज्यम्) घृत आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ हैं, उसको (अङ्घ्रिणा) पदार्थ पहुँचानेवाले अग्नि से (अद्य) आज (संभ्रियासम्) धारण करूँ और (त्वा) उसका मैं (मावक्रमिषम्) कभी उल्लङ्घन न करूँ। तथा हे अग्ने जगदीश्वर ! (ते) आपके (वसुमतीम्) पदार्थ देनेवाले (छायाम्) आश्रय को (उपस्थेषम्) प्राप्त होऊँ। जो यह (अग्ने) अग्नि (विष्णोः) यज्ञ के (स्थानम्) ठहरने का स्थान (असि) है, उसके भी (वसुमतीम्) उत्तम पदार्थ देनेवाले (छायाम्) आश्रय को मैं (उपस्थेषम्) प्राप्त होकर यज्ञ को सिद्ध करता हूँ तथा जो (ऊर्ध्वः) आकाश और जो (अध्वरः) यज्ञ अग्नि में ठहरनेवाला (आ) सब प्रकार से (अस्थात्) ठहरता है, उसको (इन्द्रः) सूर्य्य और वायु धारण करके (वीर्य्यम्) कर्म अथवा पराक्रम को (अकृणोत्) करते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदेश करता है कि जिस पूर्वोक्त यज्ञ से जल और वायु शुद्ध होकर बहुत-सा अन्न उत्पन्न करनेवाले होते हैं, उसको सिद्ध करने के लिये मनुष्यों को बहुत सी सामग्री जोड़नी चाहिये। जैसे मैं सर्वत्र व्यापक हूँ, मेरी आज्ञा कभी उल्लङ्घन नहीं करनी चाहिये, किन्तु जो असंख्यात सुखों का देनेवाला मेरा आश्रय है, उसको सदा ग्रहण करके अग्नि में जो हवन किया जाता है तथा जिस को सूर्य्य अपनी किरणों से खेंच कर वायु के योग से ऊपर मेघमण्डल में स्थापन करता है और फिर वह उस को वहाँ से मेघ द्वारा गिरा देता है और जिससे पृथिवी पर बड़ा सुख उत्पन्न होता है, उस यज्ञ का अनुष्ठान सब मनुष्यों को सदा करना योग्य है ॥८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशो भूत्वा किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अस्कन्नम्) अविक्षुब्धम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (देवेभ्यः) दिव्यसुखानां प्राप्तये (आज्यम्) घृतादिकम् (सम्) क्रियायोगे (भ्रियासम्) धारयेयम् (सम्) क्रियायोगे (अङ्घ्रिणा) गमनसाधनेनाग्निना (विष्णो) व्यापकेश्वर (मा) निषेधार्थे (त्वा) तं वा (अव) अवेति विनिग्रहार्थीयः (निरु०१.३) (क्रमिषम्) उल्लङ्घयेयम्। अत्र लिङर्थे लुङ् (वसुमतीम्) वसूनि बहूनि वस्तूनि भवन्ति यस्यां ताम्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (अग्ने) परमेश्वर भौतिको वा (ते) तव तस्य वा (छायाम्) आश्रयम् (उप) क्रियार्थे (स्थेषम्) उपपत्सीय। अत्र लिङ्याशिष्यङ् [अष्टा०३.१.८६] इत्यङि कृते छन्दस्युभयथा [अष्टा०३.४.११७] इति सार्वधातुकत्वादियादेश आर्द्धधातुकत्वात् सकारलोपो न भवति (विष्णोः) यज्ञस्य (स्थानम्) स्थित्यर्थम् (असि) भवति। अत्र व्यत्ययः (इतः) स्थानात् (इन्द्रः) सूर्य्यो वायुर्वा (वीर्य्यम्) वीरस्य कर्म पराक्रमं वा (अकृणोत्) करोति। अत्र लडर्थे लङ् (ऊर्ध्वः) आकाशस्थः सन् (अध्वरः) यज्ञः (आ) समन्तात् (अस्थात्) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लुङ् ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.४.१.१-३) व्याख्यातः ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहं देवेभ्यो यदस्कन्नमविक्षुब्धमाज्यमङ्घ्रिणा संभ्रियासं [विष्णो] अद्य त्वा तदहं मावक्रमिषं मोल्लङ्घयेयम्। हे अग्ने जगदीश्वर ! ते तव वसुमतीं छायामहमुपस्थेषमुपपत्सीय। योऽयमग्निर्विष्णोर्यज्ञस्य स्थानम(स्य)स्ति तस्यापि वसुमतीं छायामुपस्थाय यज्ञं साधयामि। य ऊर्ध्वोऽध्वरोऽग्नौ हुतः समन्तात् तिष्ठति तमित इन्द्रो धृत्वा वीर्य्यमकृणोत् करोति ॥८॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदिशति येन पूर्वोक्तेन यज्ञेनान्नजले शुद्धे पुष्कले भवतस्तदेतस्य सिध्यर्थं मनुष्यैः पुष्कलाः संभाराः सदा चेतव्याः। नैव मम व्यापकस्याज्ञामुल्लङ्घ्य वर्तितव्यम्। किन्तु बहुसुखप्रापकं मदाश्रयं गृहीत्वाऽग्नौ यो यज्ञः क्रियते, यमिन्द्रः स्वकीयैः किरणैश्छित्त्वा वायुना सहोर्ध्वमाकृष्योर्ध्वं मेघमण्डले स्थापयति, पुनस्तस्माद् भूमिं प्रति निपातयति, येन भूमौ महद्वीर्य्यं जायते, स सदाऽनुष्ठातव्य इति ॥८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदेश करतो की, ज्या पूर्वोक्त यज्ञामुळे जल व वायू शुद्ध होऊन पुष्कळ अन्न उत्पन्न होते, त्यासाठी माणसांनी पुष्कळ यज्ञसामग्री एकत्रित करावी. मी (परमेश्वर) सर्वव्यापक असून, माझ्या आज्ञेचे उल्लंघन करू नये. असंख्य सुख ज्या आश्रयामुळे प्राप्त होते तो (माझा) आश्रय सदैव घेतला पाहिजे. अग्नीत जी आहुती दिली जाते त्यांना सूर्य आपल्या किरणांद्वारे ओढून घेतो व वायूच्या साह्याने त्यांची मेघमंडळात स्थापना करतो आणि त्यांना पुन्हा मेघांद्वारेच खाली पाडतो. त्यामुळे पृथ्वीवर अनुकूल परिस्थिती निर्माण होते. अशा यज्ञाचे अनुष्ठान सर्व माणसांनी सदैव केले पाहिजे.