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स॒मिद॑सि॒ सूर्य्य॑स्त्वा पु॒रस्ता॑त् पातु॒ कस्या॑श्चिद॒भिश॑स्त्यै। स॒वि॒तुर्बा॒हू स्थ॒ऽऊर्ण॑म्रदसं त्वा स्तृणामि स्वास॒स्थं दे॒वेभ्य॒ऽआ त्वा॒ वस॑वो रु॒द्राऽआ॑दि॒त्याः स॑दन्तु ॥५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒। सूर्य्यः॑। त्वा॒। पु॒रस्ता॑त्। पा॒तु॒। कस्याः॑। चि॒त्। अ॒भिश॑स्त्या॒ इत्य॒भिऽश॑स्त्यै। स॒वि॒तुः। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। स्थः॒। उर्ण॑म्रदस॒मित्यूर्ण॑ऽम्रदसम्। त्वा॒। स्तृ॒णा॒मि॒। स्वा॒स॒स्थमिति॑ सुऽआ॒स॒स्थम्। दे॒वेभ्यः॑। आ। त्वा॒। वस॑वः। रु॒द्राः। आ॒दि॒त्याः स॒द॒न्तु॒ ॥५॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त यज्ञ के साधनों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चित्) जैसे कोई मनुष्य सुख के लिये क्रिया से सिद्ध किये पदार्थों की रक्षा करके आनन्द को प्राप्त होता है, वैसे ही यह यज्ञ (समित्) वसन्त ऋतु के समय के समान अच्छी प्रकार प्रकाशित (असि) होता है (त्वा) उसको (सूर्य्यः) ऐश्वर्य का हेतु सूर्य्यलोक (कस्याः) सब पदार्थों की (अभिशस्त्यै) प्रकटता करने के लिये (पुरस्तात्) पहिले ही से उनकी (पातु) रक्षा करनेवाला होता है तथा जो कि (सवितुः) सूर्य्यलोक के (बाहू) बल और वीर्य्य (स्थः) हैं, जिन से यह यज्ञ विस्तार को प्राप्त होता है (त्वा) उस (ऊर्णम्रदसम्) सुख के विघ्नों के नाश करने (स्वासस्थम्) और श्रेष्ठ अन्तरिक्षरूपी आसन में स्थित होनेवाले यज्ञ को (वसवः) अग्नि आदि आठ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य्य, प्रकाश, चन्द्रमा और तारागण ये वसु (रुद्राः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये रुद्र (आदित्याः) बारह महीने (सदन्तु) प्राप्त करते हैं। (त्वा) उसी (ऊर्णम्रदसम्) अत्यन्त सुख बढ़ाने (स्वासस्थम्) और अन्तरिक्ष में स्थिर होनेवाले यज्ञ को मैं भी सुख की प्राप्ति वा (देवेभ्यः) दिव्य गुणों को सिद्ध करने के लिये (आस्तृणामि) अच्छी प्रकार सामग्री से आच्छादित करके सिद्ध करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है कि मनुष्यों को वसु, रुद्र और आदित्यसंज्ञक पदार्थों से जो-जो काम सिद्ध हो सकते हैं, सो-सो सब प्राणियों के पालन के निमित्त नित्य सेवन करने योग्य हैं। तथा अग्नि के बीच जिन-जिन पदार्थों का प्रक्षेप अर्थात् हवन किया जाता है, सो-सो सूर्य्य और वायु को प्राप्त होता है। वे ही उन अलग हुए पदार्थों की रक्षा करके फिर उन्हें पृथिवी में छोड़ देते हैं, जिससे कि पृथिवी में दिव्य ओषधि आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं। उनसे जीवों को नित्य सुख होता है, इस कारण सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान सदैव करना चाहिये ॥५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तस्य यज्ञस्य साधकान्युपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

(समित्) सम्यगिध्यतेऽनयाऽनेन वा सा समिदग्निप्रदीपकं काष्ठादिकं, वसन्त ऋतुर्वा (असि) भवति। अत्र व्यत्ययः (सूर्य्यः) सुवत्यैश्वर्य्यहेतुर्भवति सोऽयं सूर्य्यलोकः (त्वा) तम् (पुरस्तात्) पूर्वस्मादिति पुरस्तात् (पातु) रक्षति। अत्र लडर्थे लोट् (कस्याः) कस्यै सर्वस्यै। अत्र चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.३.६२) इति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी (चित्) चिदित्युपमार्थे (निरु०१.४) (अभिशस्त्यै) आभिमुख्यायै स्तुतये। ‘शंसु स्तुतौ’ इत्यस्य क्तिन् प्रत्ययान्तः प्रयोगः (सवितुः) सूर्य्यलोकस्य (बाहू) बलवीर्य्याख्यौ (स्थः) स्तः। अत्र व्यत्ययः (ऊर्णम्रदसम्) ऊर्णानि सुखाच्छादनानि म्रदयति येन तं यज्ञम् (त्वा) तम् (स्तृणामि) सामग्र्याऽऽच्छादयामि (स्वासस्थम्) शोभने आसे उपवेशने तिष्ठतीति तम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (आ) समन्तात् क्रियायोगे (त्वा) तम् (वसवः) अग्न्यादयोऽष्टौ (रुद्राः) प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्म-कृकलदेवदत्तधनञ्जयाख्या दश प्राणा एकादशो जीवश्चेत्येकादश रुद्राः (आदित्याः) द्वादश मासाः। कतमे वसव इति। अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदꣳ सर्वं वसु हितमेते हीदꣳ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति ॥ कतमे रुद्रा इति ॥ दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदास्मान्मर्त्याच्छरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति। तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति। कतम आदित्या इति। द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदꣳसर्वमाददाना यन्ति यद्यदिꣳसर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति (शत०१४.६.९.४-६) (सदन्तु) अवस्थापयन्ति। षद्लृ इत्यस्य स्थाने वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति [अष्टा०१.४.९ भा०] इति सीदादेशाभावो लडर्थे लोट् च ॥ अयं मन्त्र (शत०१.४.१.७-१२) व्याख्यातः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - चित् यथा कश्चिन्मर्त्यः सुखार्थं क्रियासिद्धानि द्रव्याणि रक्षित्वाऽऽनन्दयते, तथैव योऽयं यज्ञः समिदसि भवति [त्वा] तं सूर्य्यः कस्या अभिशस्त्यै पुरस्तात् पातु पाति, यौ सवितुर्बाहू स्थः स्तो यो याभ्यां नित्यं विस्तार्य्यते [त्वा] तमूर्णम्रदसं स्वासस्थं यज्ञं वसवो रुद्रा आदित्याः सदन्त्ववस्थापयन्ति प्रापयन्ति [त्वा] तं यज्ञमहमपि सुखाय देवेभ्य आस्तृणामि ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वर सर्वेभ्य इदमुपदिशति−मनुष्यैर्वसुरुद्रादित्याख्येभ्यो यद्यदुपकर्तुं शक्यं तत्तत्सर्वस्याभिरक्षणाय नित्यमनुष्ठेयम्। योऽग्नौ द्रव्याणां प्रक्षेपः क्रियते, स सूर्य्यं वायुं वा प्राप्नोति तावेव तत्पृथग्भूतं द्रव्यं रक्षित्वा पुनः पृथिवीं प्रति विमुञ्चतः। येन पृथिव्यां दिव्या ओषध्यादयः पदार्था जायन्ते, येन च प्राणिनां नित्यं सुखं भवति तस्मादेतत् सदैवानुष्ठेयमिति ॥५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वर सर्व माणसांना उपदेश करतो की, वसू (पृथ्वी वगैरे) , रुद्र (वायू वगैरे) , आदित्य (बारा महिने) यांच्याकडून जी कामे सिद्ध होऊ शकतात, ती ती कामे माणसांनी सर्व प्राण्यांच्या पालनासाठी प्रयोगात आणली पाहिजेत. तसेच अग्नीमध्ये ज्या ज्या पदार्थांची आहुती दिली जाते ती ती सूर्य, वायू यांच्यात संयुक्त होते व त्या पदार्थांना शुद्ध करून पृथ्वीवर पाठविली जाते. त्यामुळे पृथ्वीवर दिव्य औषधी इत्यादी पदार्थ उत्पन्न होतात व जीवांना नित्य सुख मिळते. यासाठी सर्व माणसांनी नेहमी यज्ञाचे अनुष्ठान करावे.