उक्त पितर कौन-कौन पदार्थों से सत्कार करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे पुत्रादिको ! तुम (मे) मेरे (पितॄन्) पूर्वोक्त गुणवाले पितरों को (ऊर्जम्) अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रस (वहन्तीः) सुख प्राप्त करनेवाले स्वादिष्ट जल (अमृतम्) सब रोगों को दूर करनेवाले ओषधि मिष्टादि पदार्थ (पयः) दूध (घृतम्) घी (कीलालम्) उत्तम-उत्तम रीति से पकाया हुआ अन्न तथा (परिस्रुतम्) रस से चूते हुए पके फलों को देके (तर्पयत) तृप्त करो। इस प्रकार तुम उनके सेवन से विद्या को प्राप्त होकर (स्वधाः) परधन का त्याग करके अपने धन के सेवन करनेवाले (स्थ) होओ ॥३४॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को पुत्र और नौकर आदि को आज्ञा देके कहना चाहिये कि तुम को हमारे पितर अर्थात् पिता-माता आदि वा विद्या के देनेवाले प्रीति से सेवा करने योग्य हैं। जैसे कि उन्होंने बाल्यावस्था वा विद्यादान के समय हम और तुम पाले हैं, वैसे हम लोगों को भी वे सब काल में सत्कार करने योग्य हैं, जिससे हम लोगों के बीच में विद्या का नाश और कृतघ्नता आदि दोष कभी न प्राप्त हों ॥३४॥ ईश्वर ने इस दूसरे अध्याय में जो-जो वेदि आदि यज्ञ के साधनों का बनाना, यज्ञ का फल गमन वा साधन, सामग्री का धारण, अग्नि के दूतपन का प्रकाश, आत्मा और इन्द्रियादि पदार्थों की शुद्धि, सुखों का भोग, वेद का प्रकाश, पुरुषार्थ का साधन, युद्ध में शत्रुओं का जीतना, शत्रुओं का निवारण, द्वेष का त्याग, अग्नि आदि पदार्थों को सवारियों में युक्त करना, पृथिवी आदि पदार्थों से उपकार लेना, ईश्वर में प्रीति, अच्छे-अच्छे गुणों का विस्तार और सब की उन्नति करना, वेद शब्द के अर्थ का वर्णन, वायु और अग्नि आदि का परस्पर मिलाना, पुरुषार्थ का ग्रहण, उत्तम-उत्तम पदार्थों का स्वीकार करना, यज्ञ में होम किये हुए पदार्थों का तीनों लोक में जाना आना, स्वयंभू शब्द का वर्णन, गृहस्थों का कर्म, सत्य का आचरण, अग्नि में होम, दुष्टों का निवारण और जिन-जिन का सेवन करना कहा है, उन-उन का सेवन मनुष्यों को प्रीति के साथ करना अवश्य है। इस प्रकार से प्रथमाध्याय के अर्थ के साथ द्वितीयाध्याय के अर्थ की संगति जाननी चाहिए ॥३४॥