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नमो॑ वः पितरो॒ रसा॑य॒ नमो॑ वः पितरः॒ शोषा॑य॒ नमो॑ वः पितरो जी॒वाय॒ नमो॑ वः पितरः स्व॒धायै॒ नमो॑ वः पितरो घो॒राय॒ नमो॑ वः पितरो म॒न्यवे॒ नमो॑ वः पितरः॒ पित॑रो॒ नमो॑ वो गृ॒हान्नः॑ पितरो दत्त स॒तो वः॑ पितरो देष्मै॒तद्वः॑ पितरो॒ वासः॑ ॥३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। रसा॑य। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। शोषा॑यः नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। जी॒वाय॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। स्व॒धायै॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। घो॒राय॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। म॒न्यवे॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। पि॒त॒रः॑। नमः॑। वः॒। गृ॒हान्। नः॒। पि॒त॒रः॒। द॒त्त॒। स॒तः। वः॒। पि॒त॒रः॒। दे॒ष्म॒। ए॒तत्। वः॒। पि॒त॒रः॒। वासः॑ ॥३२॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पितृयज्ञ किस प्रकार से और किस प्रयोजन के लिये किया जाता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पितरः) विद्या के आनन्द को देनेवाले विद्वान् लोगो ! (रसाय) विज्ञानरूपी आनन्द की प्राप्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नमस्कार हो। हे (पितरः) दुःख का विनाश और रक्षा करनेवाले विद्वानो ! (शोषाय) दुःख और शत्रुओं की निवृत्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नमस्कार हो। हे (पितरः) धर्मयुक्त जीविका के विज्ञान करानेवाले विद्वानो ! (जीवाय) जिससे प्राण का स्थिर धारण होता है, उस जीविका के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) शील-धारण विदित हो। हे (पितरः) विद्या, अन्न आदि भोगों की शिक्षा करने हारे विद्वानो ! (स्वधायै) अन्न, पृथिवी, राज्य और न्याय के प्रकाश के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नम्रीभाव विदित हो। हे (पितरः) पाप और आपत्काल के निवारक विद्वान् लोगो ! (घोराय) दुःखसमूह की निवृत्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) क्रोध का छोड़ना विदित हो। हे (पितरः) श्रेष्ठों के पालन करने हारे विद्वानो ! (मन्यवे) दुष्टाचरण करनेवाले दुष्ट जीवों में क्रोध करने के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) सत्कार विदित हो। हे (पितरः) ज्ञानी विद्वानो ! (वः) तुम को विद्या के लिये (नमः) हमारी विज्ञान ग्रहण करने की इच्छा विदित हो। हे (पितरः) प्रीति के साथ रक्षा करनेवाले विद्वानो ! (वः) तुम्हारे सत्कार होने के लिये हमारा (नमः) सत्कार करना तुम को विदित हो। आप लोग हमारे (गृहान्) घरों में नित्य आओ और आके रहो। हे (पितरः) विद्या देनेवाले विद्वानो ! (नः) हमारे लिये शिक्षा और विद्या नित्य (दत्त) देते रहो। हे पिता-माता आदि विद्वान् पुरुषो ! हम लोग (वः) तुम्हारे लिये जो-जो (सतः) विद्यमान पदार्थ हैं, वे नित्य (देष्म) देवें। हे (पितरः) सेवा करने योग्य पितृ लोगो ! हमारे दिये इन (वासः) वस्त्रादि को ग्रहण कीजिये ॥३२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में अनेक बार (नमः) यह पद अनेक शुभगुण और सत्कार प्रकाश करने के लिये धरा है। जैसे वसन्त, ग्रीष्म, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छः ऋतु रस, शोष जीव, अन्न, कठिनता और क्रोध के उत्पन्न करनेवाले होते हैं, वैसे ही पितर भी अनेक विद्याओं के उपदेश से मनुष्यों को निरन्तर सुख देते हैं। इस से मनुष्यों को चाहिये कि उक्त पितरों को उत्तम-उत्तम पदार्थों से सन्तुष्ट करके उनसे विद्या के उपदेश का निरन्तर ग्रहण करें ॥३२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कथं किमर्थोऽयं पितृयज्ञः क्रियत इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(नमः) नम्रीभावे। यज्ञो नमो यज्ञियानेवैनानेतत्करोति (शत०२.४.२.२४) (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) विद्यानन्ददायकास्तत्संबुद्धौ (रसाय) रसभूताय विज्ञानानन्दप्रापणाय (नमः) आर्द्रीभावे (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) दुःखनाशकत्वेन रक्षकास्तत्संबुद्धौ (शोषाय) दुःखानां शत्रूणां वा निवारणाय (नमः) निरभिमानार्थे (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) धर्म्यजीविकाज्ञापकास्तत्सम्बुद्धौ (जीवाय) जीवति प्राणं धारयति प्राणधारणेन समर्थो भवति यस्मिन्नायुषि तस्मै (नमः) शीलधारणार्थे (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) अन्नभोगादिविद्याशिक्षकास्तत्सम्बुद्धौ (स्वधायै) अन्नाय पृथिवीराज्याय न्यायप्रकाशाय वा। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम् (निघं०२.७) स्वधे इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम् (निघं०३.३०) (नमः) नम्रत्वधारणे (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) पापापत्कालनिवारकास्तत्संबुद्धौ (घोराय) हन्यन्ते सुखानि यस्मिन् तद् घोरं तन्निवारणाय। हन्तेरच् घुर च (उणा०५.६४) अनेन घोर इति सिद्धयति (नमः) क्रोधत्यागे (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) श्रेष्ठानां पालका दुष्टेषु क्रोधकारिणस्तत्संबुद्धौ (मन्यवे) मन्यन्तेऽभिमानं कुर्वन्ति यस्मिन् स मन्युः क्रोधो दुष्टाचरणेषु दुष्टेषु तद्भावनाय। यजिमनि० (उणा०३.२०) अनेन मन्यतेर्युच् प्रत्ययः (नमः) सत्कारं (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) प्रीत्यापालकास्तत्संबुद्धौ (नमः) ज्ञानग्रहणार्थे (वः) युष्मभ्यम् (गृहान्) गृह्णन्ति विद्यादिपदार्थान् येषु तान् (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (पितरः) विद्यादातारस्तत्संबुद्धौ (दत्त) तत्तद्दानं कुरुत (सतः) विद्यमानानुत्तमान् पदार्थान् (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) जनकादयस्तत्संबुद्धौ (देष्म) देयास्म। डुदाञ् इत्यस्मादाशार्लिङ्युत्तमबहुवचने। लिङ्याशिष्यङ् [अष्टा०३.१.८६] इत्यङ्। छन्दस्युभयथा [अष्टा०३.४.११७] इति मस आर्द्धधातुकसंज्ञामाश्रित्य सकारलोपाभावः। सार्वधातुकसंज्ञामाश्रित्य ‘अतो येय’ [अष्टा०७.२.८०] इतीयादेशश्च (एतत्) अस्मद्दत्तम् (वः) युष्मभ्यम् (पितरः) सेवितुं योग्यस्तत्संबुद्धौ वसते आच्छादयन्ते शरीरं येन तद्वस्त्रादिकम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०२.४.२.२४) व्याख्यातः ॥३२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पितरो रसाय वो युष्मभ्यं नमोस्तु। हे पितरः शोषाय वो नमोस्तु। हे पितरो जीवाय वो नमोस्तु। हे पितरः स्वधायै वो नमोस्तु। हे पितरो घोराय वो नमोस्तु। हे पितरो मन्यवे वो नमोस्तु। हे पितरो विद्यायै वो नमोस्तु। हे पितरः सत्काराय वो नमस्तु। यूयमस्माकं गृहाणि नित्यमागच्छत। आगत्य च शिक्षाविद्ये नित्यं दत्त। हे पितरो वयं वो युष्मभ्यं सतः पदार्थान् नित्यं देष्म। पितरो यूयमस्माभिरेतद्दत्तं वासो वस्त्रादिकं स्वीकुरुत ॥३२॥
भावार्थभाषाः - अत्रानेके नमः शब्दा अनेकशुभगुणसत्कारद्योतनार्था। यथा वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्तशिशिराः षडृतवो रसशोषजीवान्नघनत्वमन्यूत्पादका भवन्ति, तथैव ये पितरोऽनेकविद्योपदेशैर्मनुष्यान् सततं प्रीणयन्ति तानुत्तमैः पदार्थैः सत्कृत्य तेभ्यः सततं विद्योपदेशा ग्राह्याः ॥३२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात अनेकदा (नमः) हे पद चांगले गुण व आदर व्यक्त करण्यासाठी आलेले आहे, जसे वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत व शिशिर हे सहा ऋतू रस, शोष, चैतन्य, अन्न, काठिण्य, क्रोध उत्पन्न करणारे असतात. तसेच पितरही माणसांना अनेक प्रकारच्या विद्यांचा उपदेश करून निरंतर सुख देतात. त्यासाठी माणसांनी पितरांना उत्तम पदार्थ देऊन संतुष्ट करावे व त्यांच्याकडून विद्या ग्रहण करावी.